________________ 314 2-1-4-1-2 (467) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भाषा के इन भेदों को भी जानना चाहिए कि- जो सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा और व्यवहार भाषा है, उन में असत्य और मिश्र भाषा का व्यवहार साधु साध्वी के लिए सर्वथा वर्जित है, केवल सत्य और व्यवहार भाषा ही उनके लिये आचरणीय है। उसमें भी यदि कभी सत्य भाषा भी सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक, निष्ठुर और कर्मों का आस्रवण करने वाली, तथा छेदन, भेदन, परिताप और उपद्रव करने वाली एवं जीवों का घात करने वाली हो तो विचारशील साधु ऐसी सत्य भाषा का भी प्रयोग न करे, किन्तु संयमशील साधु या साध्वी उसी सत्य और व्यवहार भाषा-जो कि पापरहित हो यावत् जीवोपघातक नहीं है- का ही विवेक पूर्वक वयवहार करे। अर्थात् वह निर्दोष भाषा बोले। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. शब्द को इस प्रकार जाने कि- भाषा-द्रव्य वर्गणा के पुद्गल भाषा बनने के पूर्व अभाषा याने भाषा नहि है, तथा जब भाषा बोली जाती है तब वाग्-योग से जो शब्द प्रगट होते हैं उन्हें भाषा कहतें हैं... अर्थात् मनुष्य तालु-ओष्ठ आदि के व्यापारक्रिया के द्वारा शब्द की उत्पत्ति होती है अतः यह शब्द याने भाषा कृतक याने कृत्रिम है... जैसे कि- मिट्टी के पिंड में से कंभार दंड एवं चक्र आदि से घट याने घडे को बनाता है... अतः भाषा कृत्रिम है... तथा उच्चार कीये हुए शब्द उच्चार करने के बाद तुरंत विनष्ट होते हैं अतः भाषा बोलने के बाद विनष्ट होने से वह अभाषा हि कही जाती है... जिस प्रकार- घट तुटने के बाद कपाल याने ठीकरे की अवस्था में उसे घट नहि कहतें हैं... अतः इस प्रकार शब्द का प्राग्-अभाव एवं प्रध्वंसाभाव स्पष्ट कीया... __ अब इन चारों प्रकार की भाषाओं में से अभाषणीयता याने न बोलने योग्य का स्वरुप कहतें हैं... वह इस प्रकार- वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- सत्य, मृषा, सत्यमृषा एवं असत्यामृषा भाषाओं में से मृषा एवं सत्यमृषा भाषा तो बोलना हि नहि चाहिये... और सत्य भाषा भी यदि कर्कश आदि दोषवाली हो तो नहि बोलनी चाहिये... क्योंकि- ऐसी कर्कशादि दोषवाली सत्य भाषा सावद्य याने पापवाली होती है तथा अनर्थदंड का कारण भी होती है... कर्कश याने चर्वित (कठोर) शब्दवाली... कटुक याने चित्त को उद्वेग करनेवाली... निष्ठुर याने हक्का= धिक्कारवाली... परुष याने मर्म भेदी और कर्मो का आश्रव करनेवाली भाषा नहि बोलनी चाहिये... तथा छेदन करनेवाली... भेदन करनेवाली यावत् प्राणों का विनाश करनेवाली... तथा जीवों को पीडा करनेवाली भाषा सत्य हो तो भी नहि बोलनी चाहिये... किंतु जो भाषा सत्य है एवं कुशाग्र बुद्धी से शुभपरिणामवाली मृषा भाषा भी निर्दोष हो शकती है.. जैसे किहरिणों को देखने पर भी जब शिकारी लोग पुछे तब मुनी शुभपरिणामवाली मृषा भाषा बोलतें