________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-2 (467) 315 % 3D अन्यत्र भी कहा है कि- अलिक याने जुठ तो कभी भी बोलना नहि चाहिये और सत्य भी वह बोलना नहि चाहिये कि- जो वचन अन्य को पीडा देनेवाला हो... क्योंकि- पर-पीडाकारक सत्य वचन भी सदोष कहा जाता है... तथा चौथी जो आमंत्रणी एवं आज्ञापनी असत्यामृषा भाषा है वह भी सावध न हो एवं कर्मबंध का कारण न हो तथा किसी भी जीव को पीडा कारक न हो उस प्रकार से सोच-विचारकर के साधु सदा निर्दोष भाषा बोले... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भाषा के सम्बन्ध में दो बातें बताई गई हैं- 1. भाषा की अनित्यता और 2. कौन सी भाषा बोलने के योग्य या अयोग्य है। इसमें बताया गया है कि- भाषा वर्गणा के पुद्गल जब तक वाणी द्वारा मुखरित नहीं होते, तब तक उन्हें भाषा नहीं कहा जाता। और बोले जाने के बाद भी उन पुद्गलों की भाषा संज्ञा नहीं रह जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि जब तक उनका वाणी के द्वारा प्रयोग होता है तब तक भाषा वर्गणा के उन पुद्गलों को भाषा कहते हैं। अतः ताल्वादि व्यापार से वाणी के रुप में व्यवहृत होने से पहले और बाद में वे पुद्गल भाषा के नाम से जाने पहचाने नहीं जाते। जैसे दंड-चक्र आदि के सहयोग से घड़े के आकार को प्राप्त करने के पहले तथा घड़े के टूट जाने के बाद वह मिट्टी घड़ा नहीं कहलाती है। उसी तरह भाषा वर्गणा के पदल वाणी के रूप में मखरित होने से पहले और बाद में भाषा नहीं कहलाते हैं। इससे वह स्पष्ट सिद्ध होता है कि भाषा नित्य नही, किंतु अनित्य है। क्योंकि ताल्वादि के सहयोग से भाषा वर्गणा के पुद्गलों को भाषा के आकार में प्रस्फुटित किया जाता है। इस लिए वह भाषा कृतक है और जो पदार्थ कृतक होते हैं, वे अनित्य होते हैं, जैसे घट / इससे यह स्पष्ट हुआ कि भाषा भाषावर्गणा के पुद्गलों का समूह है, वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श युक्त है, कृतक है और इस कारण से अनित्य है। प्रस्तुत सूत्र में दूसरी बात यह कही गई है कि साधु असत्य एवं मिश्र भाषा का बिल्कुल प्रयोग न करे। सत्य एवं व्यवहार भाषा में भी जो भाषा सावध हो, सक्रिय हो, कर्कश-कठोर हो, कड़वी हो, कर्म बन्ध कराने वाली हो, मर्म का उद्घाटन करने वाली हो तो साधु को ऐसी सत्य भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। इससे यह सिद्ध होता है कि साधु को सदा ऐसी सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग करना चाहिए, जो निरवद्य हो, अनर्थकारी न हो। कठोर एवं कड़वी न हो, दूसरे के मर्म का भेदन करने वाली न हो। अतः साधु को सदा मधुर, निर्दोष एवं निष्पापकारी सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए सूत्रकार ने जो 'सुहुमा' शब्द का प्रयोग किया है, उसका यही अर्थ है कि मुनि को कुशाग्र एवं सूक्ष्म (गहरी) दृष्टि से विचार करके विवेक पूर्वक भाषा का प्रयोग करना चाहिए। परन्तु, वृत्तिकार ने इसका अर्थ यह किया है कि सूक्ष्म-कुशाग्र बुद्धि से सम्यक्