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________________ 270 2-1-3-1-9 (453) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किसी तरह की गड़बड़ होती है तो उसमें साधु का जीवन भी तो खतरे में पड़ता है। फिर भी साधु अपने लिए किसी तरह का प्रयत्न नहीं करता। क्योंकि, जिस प्रवृत्ति में अन्य जीवों की हिंसा हो वैसी प्रवृत्ति करना साधु को नहीं कल्पता। प्रस्तुत सूत्र में साधुत्व की उत्कृष्ट साधना को लक्ष्य में रखकर यह आदेश दिया है कि वह मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर भी नाव में होने वाली किसी तरह की सावध प्रवृत्ति में भाग नहीं ले परन्तु मौन भाव से आत्मचिन्तन में लगा रहे। यदि कोई साधारण साधु कभी परिस्थितिवश व्यावहारिक दृष्टि को सामने रखकर नौका को संकट से बचाने के लिए कोई प्रयत्न करे तो उसे भगवान द्वारा दी गई आज्ञा के उल्लंघन का प्रायश्चित लेना चाहिए। निशीथ सूत्र में नौका सम्बन्धी कार्य करने का जो प्रायश्चित बताया गया है वह वह प्रायश्चित्त जो लोगों के प्रति मुनि की दया भावना है, उनकी रक्षा की दृष्टि है, उसका नहीं है वह प्रायश्चित केवल मर्यादा भंग का है। क्योंकि, उक्त प्रवृत्ति में प्रमादवश हिंसा का होना भी सम्भव है, इसलिए उक्त दोष का निवारण करने के लिए ही प्रयश्चित का विधान किया गया है। और उक्त क्रियाओं के करने का लघु चोमासिक प्रायश्चित बताया गया है। कुछ प्रतियों में प्रस्तुत सूत्र का अन्तिम अंश इस प्रकार भी मिलता हैं- ‘एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वदे॒हिं सहिते सदा जएज्जासि।' परन्तु, इससे अर्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता है। प्रस्तुत सूत्र में साधु की विशिष्ट साधना एवं उत्कृष्ट अध्यवसायों का उल्लेख किया गया है। नौका में आरूढ़ हुआ साधु अपने विचार एवं चिन्तन को इधर उधर न लगाकर आत्म चिन्तन में ही लगाए रहता है और 6 काय की रक्षा के लिए अपने जीवन का व्यामोह भी नहीं रखता है। इसलिए नौका में पानी भरने की स्थिति में भी शांत रहना उसकी विराट् साधना का प्रतीक है. इससे उसके आत्म-चिन्तन की स्थिरता का स्पष्ट परिचय मिलता है। इस तरह प्रस्तुत सूत्र में दिया गया आदेश साधुत्व की विशृद्ध साधना के अनुकूल ही प्रतीत होता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // शस्त्रपरिज्ञायां प्रथमः उद्देशकः समाप्तः //
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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