SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 524
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-11 (519) 485 से लेकर एक पहर तक एक करोड़, आठ लाख स्वर्ण मुद्रा का दान करते हैं। उन्होंने एक " वर्ष में 388 क्रोड 80 लाख स्वर्ण मुद्रा का दान दिया था। ____ इससे यह स्पष्ट होता है कि केवल साधु को दिया जाने वाला आहार-पानी वस्त्र-पात्र आदि का दान ही महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि अनुकम्पा दान भी अपना महत्व रखता है। भगवान द्वारा दिया गया दान इस बात को स्पष्ट करता है कि अनुकम्पादान भी पुण्य बन्ध एवं आत्म विकास का साधन है। इससे आत्मा की दया एवं अहिंसक भावना का विकास होता है और यह विकास आत्मा के लिए अहितकर नहीं हो सकता। आगमों में भी अनेक स्थलों पर अनुकम्पा दान का उल्लेख मिलता है। तुंगिया नगरी के श्रावकों की धर्म भावना एवं उदारता का उल्लेख करते हए उनके लिए 'अभंगद्वारे' का विशेषण दिया गया है। अर्थात उनके घर के दरवाजे अतिथियों के लिए सदा खुले रहते थे। इससे स्पष्ट होता है कि वे बिना किसी सांप्रदायिक एवं जातीय भेद भाव के अपने द्वार पर आने वाले प्रत्येक याचक को यथाशक्ति दान देते थे। अतः तीर्थंकरों के द्वारा दिए जाने वाले दान को केवल प्रशंसा प्राप्त करने के लिए दिया जाने वाला दान कहना उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि, महापुरुष कभी भी प्रशंसा के भूखे नहीं होते। वे जो कुछ भी करते हैं, दया एवं त्याग भाव से प्रेरित होकर ही करते हैं। अतः भगवान के दान से उनकी उदारता, जगत्वत्सलता एवं अनुकम्पा दान के महत्व का उज्जवल आदर्श हमारे सामने उपस्थित होता है, जो प्रत्येक धर्म-निष्ठ सद्गृहस्थ के लिए अनुकरणीय है। . चौथी गाथा में दो बातों का उल्लेख किया गया है-१. भगवान एक वर्ष में जितना दान करते हैं, उस धन की व्यवस्था वैश्रमण देव करते हैं। उनके आदेश से उनकी आज्ञा में रहने वाले लोकपाल देव उनके कोष को भर देते हैं। यह परंपरा अनादि काल से चली आ रही है। प्रत्येक तीर्थंकर के लिए ऐसा किया जाता है। 2. प्रत्येक तीर्थंकर भगवान के हृदय में जब दीक्षा लेने की भावना पैदा होती है, तब लौकान्तिक देव अपनी परंपरा के अनुसार आकर उन्हें धर्म तीर्थ की स्थापना करने के लिए प्रार्थना करते हैं। कुछ प्रतियों में 'वेसमण कुण्डधारी' के स्थान पर 'वेसमण कुण्डलधरा' पाठ भी उपलब्ध होता है। पांचवीं गाथा में लोकान्तिक देवों के निवास स्थान का उल्लेख किया गया है। अरुणोदधि समुद्र से उठकर तमस्काय ब्रह्म (५वें) देवलोक तक गई है और उस में नव तरह की कृष्ण राजिएं हैं वे ही नव लौकान्तिक देवों के विमान माने गए है। उन्हीं विमानों में लौकान्तिक देवों की उत्पत्ति होती है। ब्रह्म देवलोक के समीप होने से उन्हें लौकान्तिक कहते हैं। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि लोक संसार का अन्त करने वाले अर्थात् एक भव करके
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy