________________ 484 2-3-11 (519) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : बाह्ये च कल्पे बोधव्याः कृष्णराज्याः मध्ये / लोकान्तिका: विमाना: अष्टसु विस्तारा असङ्ख्येयाः // 518 // सूत्र // 11 // // 519 // एए देवनिकाया भगवं बोहिंति जिनवरं वीरं / सव्वजगज्जीवहियं अरिहा ! तित्थं पवत्तेहि / / 519 // II संस्कृत-छाया : एए देवनिकायाः भगवन्तं बोधयन्ति जिनवरं वीरम् / सर्वजगज्जीवहितं हे अर्हन् ! तीर्थ प्रवर्तय // 519 // III सूत्रार्थ : श्री जिनेश्वर भगवान दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले सांवत्सरिक दान वर्षीदान देना आरम्भ कर देते हैं, और वे प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक पहर दिन चढ़ने तक दान देते है। ___एक करोड़ आठ लाख मुद्रा का दान सूर्योदय से लेकर एक पहर पर्यन्त दिया जाता कुण्डल के धारक वैश्रमण देव और महाऋद्धि वाले लोकांतिक देव 15 कर्म भूमि में होने वाले तीर्थंकर भगवान को प्रतिबोधित करते हैं। ब्रह्मकल्प में कृष्णराजि के मध्य में आठ प्रकार के लौकान्तिक विमान असंख्यात योजन के विस्तार वाले होते हैं..... यह सब देवों का समूह जिनेश्वर भगवान महावीर को बोध देने के लिए सविनय निवेदन करते हैं कि हे अर्हन देव ! आप जगत् वासी जीवों के हितकारी तीर्थ-धर्म रुप तीर्थ की स्थापना करें। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहि है.... V सूत्रसार: पहली तीन गाथाओं में यह बताया गया है कि भगवान एक वर्ष तक प्रतिदिन सूर्योदय