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________________ 486 2-3-12 (520) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मोक्ष जाने वाले होने के कारण इन्हें लौकान्तिक कहते हैं। ये नव प्रकार के होत हैं- 1. सारश्वत, 2. आदित्य, 3. वह्नि, 4. वरुण, 5. गर्दतोय, 6. त्रुटित, 7. अव्याबाध, 8. आगनेय और 9. अरिष्ट। छठी गाथा में यह बताया गया है कि लौकान्तिक देव अपने आवश्यक आचार का पालन करने के लिए तीर्थंकर भगवान को तीर्थ की स्थापना करने की प्रार्थना करते हैं। यह तो स्पष्ट है कि गृहस्थ अवस्था मे भी भगवान तीन ज्ञान से युक्त होते हैं और अपने दीक्षा काल को भली-भांति जानते हैं। अतः उन्हें सावधान करने की आवश्यकता ही नहीं है। फिर भी जो लौकान्तिक देव उन्हें प्रार्थना करते हैं, वह केवल अपनी परम्परा-कल्प का पालन करने के लिए ही ऐसा करते हैं। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका चारों को तीर्थ कहा गया है और इस चतुर्विध संघ . रुप तीर्थ की स्थापना करने के कारण ही भगवान को तीर्थकर कहते हैं। इसके आगे का वर्णन सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 12 // // 520 // तओ णं समणस्स भ० महा० अभिणिक्खमणाभिप्पायं जाणित्ता भवणवइवाण जोइ० विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहिं सएहिं सवेहिं सएहिं, नेवत्थेहिं, सएहिं, चिंधेहिं सव्वड्ढीए सव्वजुईए सव्वबलसमुदएण सयाई सयाइं जाणविमाणाई दुरुहंति, सयाइं० दुरूहित्ता अहाबायराइं पुग्गलाई परिसाइंति, परिसाडित्ता अहासुहमाई परियाइंति, परियाइत्ता उड्ढे उप्पयंति, उड्ढं उप्पड़त्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए देवगईए, अहे णं ओवयमाणा, तिरिएणं असंखिज्जाइं दीवसमुद्दाई वीइक्क ममाणा, जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवगच्छित्ता जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उवागच्छंति, उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, तेणेव झत्ति वेगेण ओवइया, तओ णं सक्के: देविंदे देवराया सणियं जाणविमाणं पट्टवेति, सणियं जाणविमाणं पट्टवेत्ता, सणियं जाणविमाणाओ पच्चोरुहइ, सणियं एगंतमवक्कमइ, एगंतमवक्कमित्ता महया वेउव्विएणं समुग्घाएणं समोहणइ, समोहणित्ता एगं महं णाणामणि कणगरयणभत्तिचित्तं सुभं चारु कंतरुवं देवच्छंदयं विउव्वइ / तस्स णं देवच्छंदयस्स बहुमज्झदेसभाए एकं महं सपायपीढं णाणामणि कणयरणयभत्तिचित्तं सुभं चारु कंतरूवं सीहासणं विउव्वड, विउव्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता समणं भगवं महावीरं गहाय जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छड़, सणियं पुरत्थाभिमुहं सीहासणे
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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