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________________ प्रस्तावना अनन्त उपकारी चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीरस्वामीजीने जब घातीकर्मो का क्षय करके केवलज्ञान की दिव्य ज्योती को प्राप्त की तब देवविरचित समवसरण में गणधरों के प्रश्नोत्तर में परमात्मा ने त्रिपदी का दान दिया... उत्पाद, व्यय एवं ध्रुव... श्री हितेशचंद्रविजयजी म. आचारांगसूत्र की रचना गणधरो ने की एवं शीलांकाचार्यजी ने संस्कृत टीका (व्याख्या) लिखी। किन्तु वर्तमानकालीन मुमुक्षु साधु-साध्वी भगवंतो को यह गहनग्रंथ दुर्गम होने से पठन पाठनादि में हुइ अल्पता को देखते हुए पूज्य गुरुदेव श्री जयप्रभविजयजी म.सा. "श्रमण" के अंतःकरण में चिंतन चला कि- यदि जिनागमों को मातृभाषा में अनुवादित किया जाए तो मुमुक्षु आत्माओ को शास्त्राज्ञा समझने में एवं पंचाचार की परिपालना में सुगमता रहेगी। अंतःकरण की भावना को साकार रूप में परिवर्तित करने के लिए वर्तमानाचार्य गच्छाधिपति श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. से बात-विचारणा वार्तालाप के द्वारा अनुमति प्राप्त करके विक्रम संवत 2058 आसो सुदी-१० (विजयादशमी) के शुभ दिन शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थ की पावनकारी पूण्य भूमि में देवगुरु की असीम कृपा से राष्ट्रभाषा हिन्दी में सटीक आचारांगसूत्र के भावानुवाद का लेखनकार्य प्रारंभ किया। भावानुवाद का लेखनकार्य निर्विघ्नता से चलता रहा। यद्यपि पूज्य गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य प्रतिकूल रहता था तो भी भावानुवाद का लेखनकार्य अविरत क्रमशः चलता रहा। पूज्य दादा गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. कि पावन कृपासे सत्ताईश (27) महिनो में सटीक आचारांगसूत्र का भावानुवाद स्वरूप लेखनकार्य परिपूर्ण हुआ। -- पूज्य गुरुदेव श्री जयप्रभविजयजी म.सा. दृढ संकल्पी थे। जो समुचित कार्य एकबार सोच लेते वह कार्य परिपूर्ण करके हि विश्राम लेते थे। उस कार्य में चाहे कैसी भी कठिनाइयां आ जाए प्रत्येक कठिनाइयों का सहर्ष स्वागत करते थे एवं देवगुरु की कृपा से विघ्नों का उन्मूलन करके उस कार्य को पूर्ण करके हि रहते थे। सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद का लेखनकार्य जब पूर्ण हुआ तब प्रकाशन के लिए विचार विमर्ष प्रारंभ हुआ। पूज्यश्री ने गंभीरता से विचारकर अपने निकटवर्ती परम गुरु उपासक आहोर (राज.) निवासी श्री शांतिलालजी वक्तावरमलजी मुथा को पत्रव्यवहार द्वारा अपनी आंतरिक भावना अवगत कराई श्री शांतिलालजी ने भी इस आगमशास्त्र संबंधित श्रेष्ठ कार्य की अनुमोदना करते हुए
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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