________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-3 (456) 277 आमृज्यात् वा यावत् प्रतापयेत् वा, तत: संयतः एव० ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 456 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी जल में बहते समय अप्काय के जीवों की रक्षा के लिए अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का एवं एक पैर से दूसरे पैर का और शरीर के अन्य अवयवों का भी स्पर्श न करे। इस तरह वह परस्पर में स्पर्श न करता हुआ जल में बहता हुआ चला जाए। वह बहते समय डुबकी भी न मारे, एवं इस बात का विचार करे कि यह जल मेरे कानों में, आखों में, नाक और मुख में प्रवेश पाकर परिताप न पाए। तदनन्तर जल में बहता हुआ साधु यदि दुर्बलता का अनुभव करे तो शीघ्र ही थोडी या समस्त उपधि का त्याग कर दे वह साधु उस उपधि-उपकरण पर किसी प्रकार का ममत्व न रखे। यदि वह यह जाने कि मैं उपधि युक्त ही इस जल से पार हो जाऊंगा तो किनारे पर आकर जब तक शरीर से जल टपकता रहे, शरीर गीला रहे तब तक नदी के किनारे पर ही ठहरे किन्तु जल से भीगे हुए शरीर को एक वार या एक से अधिक वार हाथ से स्पर्श न करे, मसले नहीं और न उद्वर्तन की भांति मैल उतारे, इसी प्रकार भीगे हुए शरीर और उपधि को धूप में सुखाने का भी प्रयत्न न करे वह यह जाने ले कि मेरा शरीर तथा उपधि पूरी तरह सूख गई है तब अपने हाथ से शरीर का स्पर्श या मर्दन करे एवं धूप में खड़ा हो जाए फिर किसी गांव की ओर जावे अर्थात् विहार कर दे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जल में तैरते हुए अप्काय जीवों की रक्षा के लिये हाथ आदि से हाथ आदि का स्पर्श न करें... इस प्रकार साधु संयत होकर हि जल को तैरे... वह साधु जल में तैरता हुआ जल में मज्जन-उन्मज्जन याने डूबना एवं उपर आना न करें इत्यादि शेष सुगम है... तथा साधु जल में तैरते हुए थक जावे ततः तत्काल वस्त्रादि उपकरणों का त्याग करें या असार वस्त्रादि का त्याग करें, किंतु वस्त्रादि उपकरणों में आसक्त होकर पकड न रखें... तथा जब ऐसा जाने कि- वस्त्रादि उपकरणों के साथ जल में तैर कर किनारे पहुंचने में मैं समर्थ हुं, तब वह साधु जल को तैर कर किनारे पे आकर संयत हि होकर टपकते हुए जलवाले या भीगे हुए शरीर से किनारे पे खडा रहे, और वहां इरियावही प्रतिक्रमण करे... शेष सूत्र सुगम है... किंतु यहां सामाचारी इस प्रकार है कि- जो वस्त्रादि जल से भीगे हुए हैं वे स्वयं हि जब तक सुख जावे तब तक वहां किनारे पे खडा रहें... परंतु यदि वहां चौर आदि के भय से गमन करना हो तो सीधे शरीर से हि (हाथ को चलाये बिना) वहां से गांव की और विहार करें...