________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-7 (412) 197 लगेंगे और उसे तंग करने का भी प्रयत्न करेंगे और इस कारण संक्लेश का वातावरण भी बन सकता है और उनके साथ अधिक परिचय होने से श्रद्धा में विपरीतता आने की भी संभावना रहती है। इसलिए साधु को अन्य मत के भिक्षुओं के अधिक आवागमन वाले स्थान में मासकल्प या चातुर्मास कल्प नहीं करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे स्थानों में परिस्थितिवश एक-दो दिन ठहरना पड़े तो उसका निषेध नहीं है। प्रस्तुत पाठ से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग में यात्रियों ठहरने की सविधा के लिए गांव के बाहर धर्मशालाएं. विश्रामगृह एवं मठ आदि होते थे और गांव या शहर में गृहपतियों के अतिथ्यालय बने होते थे और उनमें बिना किसी सम्प्रदाय या पंथ भेद के सबको समान रूप से ठहरने की सुविधा मिलती थी। प्रस्तुत सूत्र में 'साहम्मिएहि' पद का केवल साधर्मिक साधुओं के लिए नहीं, अपितु सभी साधुओं के लिए सामान्य रूप से प्रयोग किया गया है। अतः प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ अन्य मत के साधु संन्यासी करना चाहिए। वृत्तिकार ने भी यही अर्थ किया है। साधु को अपनी विहार मर्यादा में काल का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 412 // से आगंतारेसु वा जे भयंतारो उउबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! कालाइक्कंतकिरिया वि भवति // 9 // // 412 / / II संस्कृत-छाया : स: आगन्तागारेषु वा ये भगवन्तः ऋतुबद्धं वा वर्षावासं वा कल्पं उपनीय तत्रैव भूयः संवसन्ति, अयं हे आयुष्मन् ! कालातिक्रान्त-क्रिया-दोषः भवति // 1 // // 412 / / III सूत्रार्थ : धर्मशाला आदि स्थानों मे जो मुनिराज शीतोषण काल में मास कल्प एवं वर्षाकाल में चातुर्मासकल्प को बिताकर बिना कारण पुनः वहीं पर निवास करते हैं तो वे काल का अतिक्रमण करते हैं। IV टीका-अनुवाद : उन आगन्तागार-गृहों में जो साधु भगवंत ऋतुबद्ध याने शीत एवं उष्णकाल में मासकल्प करके पुनः वर्षाकाल में चार महिने रह कर पुनः वहां बिना कारण हि यदि रहतें