________________ 198 2-1-2-2-8 (413) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हो, तब हे आयुष्मन् श्रमण ! वहां उन्हें कालातिक्रम नाम का दोष लगता है, तथा वहां के स्त्रीजनों से प्रतिबंध याने स्नेह-सद्भाव होता है और उस स्नेह-सद्भाव के कारण से उद्गमादि दोषों की संभावना है, इस कारण से ऐसे उपाश्रय (क्षेत्र) में साधुओं को स्थान शय्या निषद्यादि करना कल्पे नहि... // 1 // // 412 // अब उपस्थान दोष कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- जिस स्थान में साधु ने मासकल्प या वर्षावासकल्प किया हो उसे उसके बाद उस स्थान में बिना कारण के नहीं ठहरना चाहिए। यदि बिना किसी विशेष कारण के वे उस स्थान में ठहरते हैं तो कालातिक्रमण दोष का सेवन करते हैं। क्योंकि मर्यादा से अधिक समय तक एक स्थान में रहने से गृहस्थों के साथ अधिक घनिष्ठ परिचय हो जाता है और इससे उनके साथ राग-भाव हो जाता है और इस कारण आहार में भी उदगमादि दोषों का लगना सम्भव है। और दूसरी बात यह है कि एक ही स्थान पर रुक जाने से अन्य गांवों में धर्म प्रचार भी नहीं होता है। अतः संयम शुद्धि एवं शासनोन्नति की दृष्टि से साधु को मर्यादित काल से अधिक नहीं ठहरना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक क्रिया कालमर्यादा में ही होनी चाहिए। इससे जीवन की व्यवस्था बनी रहती है और तप-संयम भी निर्मल रहता है। आगम में एक प्रश्न किया गया है कि काल की प्रतिलेखना करने से अर्थात् कालमर्यादा का पालन करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर देते हुए श्रमण भगवान महावीर ने फरमाया है कि काल मर्यादा का सम्यक्तया परिपालन करने वाला व्यक्ति ज्ञानावरणीय कर्मो की निर्जरा करता है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्रिया समय पर करने के कारण वह स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन के समय का उल्लंघन नहीं करेगा और स्वाध्याय आदि के करने से ज्ञानावरणीय आदि कर्म का क्षय या क्षयोपशम होगा और उसके ज्ञान में अभिवृद्धि होगी। और समय पर क्रियाएं न करके आगे-पीछे करने से साधक स्वाध्याय आदि के लिए भी व्यवस्थित समय नहीं निकाल सकेगा। अतः मुनि को मासकल्प एवं वर्षावासकल्प के पश्चात बिना किसी कारण के काल का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। अब उपस्थान क्रिया के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें I सूत्र // 8 // // 413 // से आगंतागारेसु वा, जे भयंतारो उ30 वासा कप्पं उवाइणावित्ता तं दुगुणा