________________ 196 2-1-2-2-6 (411) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D एकान्त स्थान में छोड़ देवे। इस तरह प्रस्तुत पाठ विधि और निषेध दोनों का परिबोधक है। जिस स्थान में साधु को ठहरना हो, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएं करनी हों उस स्थान में अंडा आदि जीव-जंतु नहीं होना चाहिए। साधु को किस स्थिति में किस तरह के मकान में नहीं ठहरना चाहिए, इस सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैंI सूत्र // 6 // // 411 // से आगंतारेसु आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं साहम्मिएहिं उवयमाणेहिं नो उवइज्जा // 411 / / II संस्कृत-छाया : स: आगन्तागारेषु आरामागारेषु वा गृहपकुिलेषु वा पर्यावसथेषु वा अभीक्ष्णं साधर्मिकैः अवपतद्भिः न अवपतेत् // 411 // III सूत्रार्थ : धर्मशाला, उद्यान में बने हुए विश्रामगृह, गृहपति कुल एवं तापस आदि के मठों में जहां अन्य मत के साधु बार-बार आते-जाते हों, वहां जैन मुनि को मासकल्प नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : जहां गांव आदि के बाहार आकर मुसाफिर ठहरतें हैं वे आगन्तागारों में तथा आराम याने बगीचे के मध्य में जो घर है वहां, तथा पर्यावसथ याने मठों में इत्यादि उपाश्रय-मकानों में कि- जहां बार बार अन्य साधर्मिक साधु मासकल्पादि के लिये आतें हो, वहां साधु न आवें अर्थात् वहां मासकल्पादि न करें... अब कालातिक्रांत वसति के दोष कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में धर्मशाला, विश्रामगृह, गृहपति के अतिथ्यालय एवं तापस आदि के मठों में यदि अन्यमत के साधुओं का अधिक आवागमन रहता हो तो साधु को ऐसे स्थानों में मासकल्प नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि उनके अत्यधिक आवागमन से वहां का वातावरण शान्त नहीं रह पाएगा और उस कोलाहलमय वातावरण में साधु एकाय एवं शान्त मन से स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन नहीं कर सकेगा। दूसरी बात यह है कि जैन मुनि की वृत्ति उनसे कठिन होने के कारण उनकी अधिक प्रतिष्ठा को देखकर वे उससे ईर्ष्या रखने