________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-3 (495) 401 सति न उपालयिष्ये, तृतीया प्रतिमा / अथापरा० यस्य भिक्षो:० अहं च० अवग्रहं अवगृहीष्यामि, अन्येषां च अवग्रहे अवगृहीते सति उपालयिष्ये, चतुर्थी प्रतिमा / अथापरा० यस्य० अहं च खलु आत्मनः अर्थाय अवग्रहं च अवगृहीष्यामि० नो द्वयोः, न प्रयाणां, न चतुर्णां न पथानां, पञ्चमी प्रतिमा / - अथाऽपरा० स: भिक्षुः० यस्य एव अवग्रहे उपालीनीयात्, सः तत्र यथासमन्वागते इक्कडः उत्कटः वा पलाल: वा, तस्य लाभे संवसेत्, तस्य अलाभे उत्कुटुकः वा (नैषधिक:) निषण्ण: वा विहरेत्, षष्ठी प्रतिमा / अथाऽपरा० सप्तमी० स: भिक्षुः० यथासंस्तृतमेव अवग्रहं याचेत, तद्-यथापृथिवीशिलां वा काष्ठशिलां वा यथासंस्तृतामेव, तस्याः लाभे सति० तस्याः अलाभे सति उत्कुटुकः वा निषण्णः वा विहरेत्, सप्तमी प्रतिमा।। इत्येतासां सप्तानां प्रतिमानां अन्यतरां यथा पिण्डैषणायाम् // 495 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी धर्मशाला आदि में गृहस्थ और गृहस्थों के पुत्र आदि से प्राप्त निर्दोष स्थान में भी वक्ष्यमाण सात प्रतिमाओं के द्वारा अवग्रह की याचना करके वहां पर ठहरे। 1. . . 'धर्मशाला आदि स्थानों की परिस्थिति को देख कर यावन्मात्र काल के लिए वहां के स्वामी की आज्ञा हो तावन्मात्र काल वहां ठहरुंगा, यह पहली प्रतिमा है। D में अन्य भिक्षुओं के लिए उपाश्रय की आज्ञा मागूंगा और उनके लिए याचना किए गए उपाश्रय में ठहरुंगा यह दूसरी प्रतिमा है। कोई साधु इस प्रकार से अभिग्रह करता है कि मैं अन्य भिक्षुओं के लिए तो अवग्रह की याचना करुंगा, परन्तु उनके याचना किए गए स्थानों में नहीं ठहरूंगा। यह तीसरी प्रतिमा का स्वरूप है। कोई साधु इस प्रकार से अभिग्रह करता है- में अन्य भिक्षुओं के लिए अवग्रह की याचना कहीं करूंगा, परन्तु उनके याचना किए हुए स्थानों में ठहरुंगा। यह चौथी प्रतिमा है।