________________ 402 2-1-7-2-3 (495) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कोई साधु यह अभिग्रह धारण करता है कि मैं केवल अपने लिए ही अवग्रह की याचना करुंगा, किन्तु अन्य दो, तीन, चार और पांच साधुओं के लिए याचना नहीं करूंगा। यह पांचवीं प्रतिमा है। कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं जिस स्थान की याचना करुंगा उस स्थान पर यदि तृण विशेष-संस्तारक आदि मिल जायेंगे तो उन पर आसन करुंगा, अन्यथा उत्कटुक आसन आदि के द्वारा रात्रि व्यतीत करूंगा यह छठी प्रतिमा है। जिस स्थान की आज्ञा ली हो यदि उसी स्थान पर पृथ्वी शिला, काष्ठ शिला तथा पलाल आदि बिछा हुआ हो तब वहां आसन करुंगा, अन्यथा उत्कुट्रक आदि आसन द्वारा रात्रि व्यतीत करुंगा, यह सातवीं प्रतिमा है। इन सात प्रतिमाओं में से यदि कोई साधु कोई एक स्वीकार करे तब वह साधु अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की निन्दा न करे। अभिमान एवं गर्व को छोड़कर अन्य साधुओं को भी समभाव से देखे। शेष वर्णनपिंडैषणा अध्ययनवत् जानना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आगंतागार याने धर्मशाला आदि, में अवग्रह ग्रहण करने के बाद वहां जो घर के स्वामी या उनके पुत्र आदि के घर हो, और अधिक अवग्रह की आवश्यकता हो, तो साधु उनसे अन्य अवयह की याचना करें... साधु सात भिक्षु-अवग्रहप्रतिमाओ के द्वारा अवग्रह की याचना करें... उनमें प्रथमा प्रतिमा इस प्रकार हैं... 1. वह साधु पहले से हि सोच-विचारकर निश्चित करे कि- मुझे इस प्रकार का उपाश्रयवसति धर्मशालादि में अवग्रह प्राप्त होगा तो ग्रहण करुंगा, किंतु अन्य प्रकार की वसति को ग्रहण नहि करूंगा... यह प्रथम अवग्रह प्रतिमा हुइ... अन्य साधुओं के लिये अवग्रह की याचना करुंगा, और उन साधुओं के लिये ग्रहण कीये हुए अवग्रह में हि निवास करुंगा... यह दुसरी अवग्रह प्रतिमा... यहां पहली अवग्रह-प्रतिमा सामान्य से कही गइ है, जब कि- यह दुसरी अवग्रह प्रतिमा गच्छ में रहे हुए सांभोगिक और असांभोगिक उद्युक्त विहारी साधुओं के लिये कही गई है, क्योंकि- वे एक-दूसरों के लिये अवग्रह की याचना करतें हैं... 3. अब तीसरी अवग्रह-प्रतिमा इस प्रकार है कि- यथालंदिक-साधु जो होते हैं वे अन्य के लिये अवग्रहकी याचना करतें हैं, किंतु अन्य साधुओं ने ग्रहण कीये हुए अपग्रह में वे नहि निवास करतें... क्योंकि- वे यथालंदिक साधु आचार्य से सूत्र एवं अर्थ की