________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-3 (495) 403 - इच्छा रखतें हैं, अतः आचार्यजी के लिये अवग्रह की याचना करते हैं... अब चौथी अवग्रह-प्रतिमा- जो साधु गच्छमें रहकर उद्यत विहारी हैं वे जिनकल्प आदि के लिये परिकर्म करतें हैं वे अन्य साधुओं के लिये अवग्रह की याचना नहि करतें किंतु अन्य साधुओं ने ग्रहण कीये हुए अवग्रह-वसति में उनके साथ निवास करतें अब पांचवी अवग्रह-प्रतिमा जिनकल्पवाले साधुओं के लिये कही है, वह इस प्रकारवे जिनकल्पवाले साधु अपने खुद के लिये अवग्रह की याचना करतें हैं किंतु अन्य दो, तीन, चार, पांच साधुओं के लिये नहिं... अब छट्ठी अवग्रह-प्रतिमा जिनकल्पवाले आदि साधुओं के लिये होती है... वह इस प्रकार जिनकल्पवाले साधु जिस गृहस्थ से अवग्रह ग्रहण करतें हैं उनके पास से हि सादडी, संथारा आदि ग्रहण करतें हैं... यदि उसी गृहस्थ के पास से सादडी-संथारा आदि प्राप्त न हो, तब उत्कट आसन से हि बैठे या खडे खडे हि रात्री बीतावे... अब सातवी अवग्रह प्रतिमा... यह पूर्व की तरह है, किंतु जैसे भी हो वैसे हि संथाराशिला- पाट आदि ग्रहण करते हैं... अन्य प्रकार के नहिं... शेष आत्मोत्कर्ष आदि का त्याग इत्यादि सभी बात पिंडेषणा की तरह जानीयेगा... सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में अवग्रह से सम्बद्ध सात प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। पहली प्रतिमा में बताया गया है कि साधु सूत्र में वर्णित विधि के अनुसार मकान की याचना करे और वह गृहस्थ जितने काल तक जितने क्षेत्र में ठहरने की आज्ञा दे तब तक उतने ही क्षेत्र में ठहरे। दूसरी प्रतिमा यह है कि मैं अन्य साधुओं के लिए मकान की याचना करुंगा तथा उनके लिये याचना किए गए मकान में ठहरूंगा। तीसरी प्रतिमा में वह यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं अन्य साधु के लिए मकान की याचना करुंगा, परन्तु अन्य के याचना किये हुए अवग्रह में नहि रहुंगा... पांचवीं प्रतिमा में वह केवल अपने लिए ही मकान की याचना करता है, अन्य के लिए नहीं। छठी प्रतिमा में वह यह प्रतिज्ञा करता है कि जिसके मकान में ठहरूंगा उससे हि घास आदि संस्तारक ग्रहण करूंगा, अन्यथा उकडू आदि आसन करके रात व्यतीत करूंगा और सातवीं प्रतिमा में वह साधु उन्हीं तख्त; शिलापट एवं घास आदि को काम में लेता है, जो पहले से उस मकान में बिछे हुए हों। इसमें प्रथम प्रतिमा सामान्य साधुओं के लिए हैं। दूसरी प्रतिमा का अधिकारी मुनि