________________ 404 2-1-7-2-4 (496) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गच्छ में रहने वाले साम्भोगिक एवं उत्कट संयम निष्ठ असाम्भोगिक साधुओं के साथ प्रेम भाव रखने वाला होता है। तीसरी प्रतिमा उन साधुओं के लिए है जो आचार्य आदि के पास रहकर अध्ययन करना चाहते हैं। चौथी प्रतिमा उनके लिए है, जो गच्छ में रहते हुए जिनकल्पी बनने का अभ्यास कर रहे हैं। पांचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमा केवल जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध हैं। ये भेद वृत्तिकार ने किए हैं। मलपाठ में किसी कल्प विशेष का स्पष्ट संकेत नहीं किया गया है। वहां तो इतना ही उल्लेख किया गया है कि मुनि इन सात प्रतिमाओं को ग्रहण करते हैं, सामान्य रूप से प्रत्येक साधु अपनी शक्ति सामार्थ्य एवं मर्यादानुसार अभिग्रह ग्रहण कर सकता है। सूत्रकार का सारांश उल्लेख यह है कि स्थान सम्बन्धी समस्त दोषों का त्याग करके साधु को निर्दोष अवग्रह की याचना करनी चाहिए। पिण्डैषणा आदि अध्ययनों की तरह इसमें भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अभियह ग्रहण करने वाले मुनि को अन्य साधुओं को घृणा एवं तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। ' परन्तु सब का समान रूप से आदर करते हुए यह कहना चाहिए कि भगवान की आज्ञा के अनुरूप आचरण करने वाले सभी साधु मोक्ष मार्ग के पथिक हैं। __ अब अवग्रह के भेदों का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 4 // // 496 // सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं- इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे उग्गहे पण्णते, तं जहा० देविंद-उग्गहे 1, रायउग्गहे 2, गाहावइ उग्गहे 3, सागारिय उग्गहे 4, साहम्मिय० 5, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं / / 496 // II संस्कृत-छाया : श्रुतं मया आयुष्मता भगवता एवं आख्यातम्- इह खलु स्थविरैः भगवद्भिः पञ्चविधः अवग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- देवेन्द्र-अवग्रह : 1, राज-अवग्रहः 2, ग्रहपतिअवग्रहः 3, सागारिक-अवग्रहः 4, साधर्मिक-अवग्रहः 5, एवं खलु तस्य भिक्षो: भिक्षुण्याः वा सामग्यम् // 496 // III सूत्रार्थ : हे आयुष्मन्-शिष्य ! मैने भगवान से इस प्रकार सुना है कि इस जिन प्रवचन में पूज्य स्थविरों ने पांच प्रकार का अवग्रह प्रतिपादन किया है 1. देवेन्द्र अवग्रह, 2. राज अवग्रह, 3. गृहपति अवग्रह, 4. सागारिक अवग्रह और 5. साधर्मिक अवग्रह। इस प्रकार यह साधु