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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-4 (496) 405 और साध्वी का समय-संपूर्ण पंचाचार है। IV टीका-अनुवाद : आयुष्मान् भगवान्ने जो कहा है वह मैंने (सुधर्मस्वामी ने) सुना है, वह इस प्रकारस्थविर साधु-भगवंतोंने पांच प्रकारका अवग्रह कहा है... वह इस प्रकार- देवेंद्रका अवग्रह, राजाका अवग्रह, गृहपतिका (गांवके मुखीका) अवग्रह, गृहस्थ (घरके मालिक) का अवग्रह और साधर्मिक-साधुओंका अवग्रह... इत्यादि... और यह हि उन साधु और साध्वीजीओंका सच्या साधुपना (साधुत्व) है इत्यादि... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार के अवग्रह का वर्णन किया गया है- 1. देवेन्द्र अवग्रह, 2. राज अवग्रह, 3. गृहपति अवग्रह, 4. सागारिक अवग्रह और 5. साधर्मिक अवग्रह / दक्षिण भरत क्षेत्र में विचरने वाले मुनियों को प्रथम देवलोक के सुधर्मेन्द्र की आज्ञा ग्रहण करना देवेन्द्र अवग्रह कहलाता है। इससे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि तिर्यक् लोक पर भी देवों का आधिपत्य है। आगम में बताया गया है कि साधु जङ्गल में या अन्य स्थान में जहां कोई व्यक्ति * न हो वहां देवेन्द्र की आज्ञा लेकर तृण, काष्ठ आदि ग्रहण कर सकता है। आज भी साधु बाहर शौच के लिए बैठते समय या विहार के समय में रास्ते में किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करना हो तो देवेन्द्र (शकेन्द्र) की आज्ञा लेकर बैठते हैं। इस तरह साधु कोई भी वस्तु बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करते। भरत क्षेत्र के 6 खण्डों पर चक्रवर्ती का शासन होता है। अतः उसकी आज्ञा से उन देशों में विचरना यह राज अवग्रह कहलाता हैं... तथा उस युग में एक देश अनेक भागों में विभक्त था, जैसे आज भारत कई प्रान्तों में बँटा हुआ है, परन्तु, इस समय सब प्रान्त केन्द्र से सम्बद्ध होने से वह अखण्ड कहलाता है। परन्तु, उस समय उन विभागों के स्वतन्ना शासक थे, अतः उन विभिन्न देशों में विचरते समय उनकी आज्ञा लेना गृहपति अवग्रह कहलाता है। जिस व्यक्ति के मकान में ठहरना हो उसकी आज्ञा ग्रहण करना सागारिक अवग्रह कहलाता है। अगार का अर्थ है- घर, अतः अपने घर या मकान पर आधिपत्य रखने वाले को सागारिक कहते हैं। और इसे शय्यातर अवग्रह भी कहते हैं। क्योंकि, साधु जिससे मकान की आज्ञा ग्रहण करता है, उसे आगमिक भाषा में शय्यातर भी कहते हैं। जिस मकान में पहले से साधु ठहरे हों तब आगंतुक साधु उनकी आज्ञा से वहां ठहरता है, यह साधर्मिक अवयह है। अपने साम्भोगिक साधुओं की किसी वस्तु को ग्रहण करना हो तो भी साधु को उनकी आज्ञा लेकर ही ग्रहण करना चाहिए। इस तरह साधु को बिना
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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