________________ 126. 2-1-1-9-1 (303) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 ____ अध्ययन - 1 उद्देशक - 9 पिण्डैषणा आठवा उद्देशक कहा, अब नववे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- आठवे उद्देशक में अनेषणीय आहारादि पिंड का त्याग करने का कहा, अब यहां नववे उद्देशक में भी यह हि बात प्रकारांतर से कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 383 // इह खलु पाईणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, गाहावई वा जाव कम्मकरी वा तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ, जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलवंतो वयवंतो गुणवंतो संजया संवुडा बंभयारी उवरया मेहुआणो धम्माओ, नो खलु एएसिं कप्पड़ आहाकम्मिए असणे वा, भुत्तए वा। से जं पुण इमं अम्हं अप्पणो अट्ठाए निट्ठियं तं असणं, सव्वमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो अट्ठाए असणं वा, चेहस्सामो, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म तहप्पगारं असणं वा अफासुर्य० / / 383 / / II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादौ दिशि सन्ति, एके श्राद्धाः भवन्ति, गृहपतिः वा यावत् कर्मकरी वा, तेषां च एवं उक्तपूर्वं भवेत्, ये इमे श्रमणा: भगवन्त: शीलवन्तः व्रतवन्त: संयता: संवृताः ब्रह्मचारिण: उपरता: मैथुनात् धर्मात्, न खलु एतेषां कल्पते आधाकर्मिकं अशनं वा, भोक्तुं वा पातुं वा। सः यत् पुनः इदं अस्माकं आत्मार्थं निष्ठितं, तं अशनं वा, सर्वमेतत् श्रमणेभ्यः प्रयच्छामः, अपि च वयं पश्चात् आत्मार्थं अशनं वा. चेतयिष्यामः, एतत्-प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य तथाप्रकारं अशनं वा, अप्रासुकं० // 383 | III सूत्रार्थ : इस क्षेत्र में पूर्वादि चारों दिशाओं में कई गृहपति एवं उनके परिजन आदि श्रद्धावान् सद्गृहस्थ रहते हैं, और वे परस्पर मिलने पर इस प्रकार बातें करते हैं कि ये पूज्य श्रमण शील निष्ठ हैं, व्रतधारी हैं, गुण संपन्न हैं, संयमी हैं, संवृत-आस्रवों का निरोध करने वाले हैं, परमब्रह्मचारी हैं, मैथुन धर्म से सर्वथा निवृत्त हैं ! इनको आधाकर्मिक अशनादि चतुर्विध आहार लेना कल्पता नहि है। अतः हमने जो अपने लिए आहार बनाय है, वह सब आहार इन श्रमणों को दे देंगे, और हम अपने लिए और आहार बना लेंगे। उनके इस प्रकार के वार्तालाप को