________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-1 (303) 127 सुन कर तथा विचार कर साधु इस प्रकार के आहार को अप्रासुक जानकर मिलने पर भी ग्रहण न कर। IV टीका-अनुवाद : यहां प्रज्ञापक क्षेत्र में याने प्रज्ञापक की अपेक्षा से पूर्व आदि दिशाओं में पुरुष (मनुष्य) हैं, उनमें से कितनेक श्रद्धालु हैं... वे भद्रक प्रकृतिवाले श्रावक, तथा और अन्य गृहपति यावत् कर्मचारी (दासी) हैं... उन्होंने पहले से हि ऐसा कहा हो कि- जो यह श्रमण साधुभगवंत, अट्ठारह हजार (18000) शीलांग को धारण करनेवाले शीलवंत, तथा पांच महाव्रत एवं छठे रात्रिभोजन विरमण व्रत को धारण करनेवाले व्रतवाले, तथा पिंडविशुद्धि आदि उत्तर गुणवाले गुणवंत, तथा पांच इंद्रियां एवं मन (नोइंद्रिय) के संयमवाले संयत, तथा आश्रव द्वारों का निरोध करनेवाले संवृत, तथा ब्रह्मचर्य की गुप्ति से गुप्त ऐसे ब्रह्मचारी, तथा अट्ठारह भेदवाले अब्रह्म स्वरूप मैथुन से उपरत (संयत) ऐसे उन्हें आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि लेना कल्पता नहि है, अतः जो यह अपने लिये आहारदि तैयार कीये हुए है, वह अशन, पान आदि इन साधुओं को दे रहे हैं... तथा हम बादमें अपने लिये आहारादि बनाएंगे... इत्यादि प्रकार की घोषणा सुनकर या अन्य से जानकर साधु पश्चात्कर्म (दोष) के भयसे वह आहारादि अनेषणीय एवं अप्रासुक मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया हैं कि- साधु को अपने घर में आया हुआ देखकर यदि कोई श्रद्धालु गृहस्थ एक-दूसरे से कहें कि ये पूज्य श्रमण संयम निष्ठ हैं; शीलवान हैं, ब्रह्मचारी हैं। इसलिए ये आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार नहीं लेते हैं। अतः हमने जो अपने लिए आहार बनाया है, वह सब आहार इन्हें दे दें और अपने लिए फिर से आहार बना लेंगे। इस तरह के विचार सुन कर साधु उक्त आहार को ग्रहण न करे। क्योंकि इससे साधु को पश्चात्कर्म दोष लगेगा। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त तीन शब्द विशेष विचारणीय हैं- 1. सड्ढा, 2. असण 3. चेइस्सामो। 1. सड्ढा-प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने श्रावक एवं उपासक दोनों शब्दों का उपयोग न करके 'सड्ढा' शब्द का उपयोग किया है। इसका तात्पर्य यह है कि व्रतधारी एवं साधुसामाचारी से परिचित श्रावक इतनी भूल नहीं कर सकता कि वह पश्चात्कर्म का दोष लगाकर साधु को आहार दे। अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि इस तरह का आहार देने का विचार करने वाला व्यक्ति श्रद्धानिष्ठ भक्त हैं, परन्तु साधु के आचार से पूरी तरह परिचित 'नहीं है। वह इतना तो जानता है कि ये आधाकर्म आदि आहार ग्रहण नहीं करते हैं। परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं है कि ये पश्चात्कर्म दोष युक्त आहार भी ग्रहण नहीं करते हैं। अतः यहां