________________ 72 2-1-1-5-1 (359) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : वह साधु गृहस्थों के घर में प्रवेश करने पर ऐसा जाने कि- अयपिंड याने बनी हुई रसोई शालि-ओदनादि आहार का देवतादि के लिये थोडा थोडा निकालते हुए देखकर, तथा अन्य जगह फेंकते हुए देखकर तथा देवता के मंदिर आदि में ले जाते हुए देखकर तथा थोडा थोडा अन्य लोगों को देते हुए देखकर, तथा भोजन करते हुए देखकर, तथा देवता के मंदिर से चारों दिशाओ में फेंकते हुए देखकर तथा पहले भी अन्य साधु-श्रमणादि इस अग्रपिंड को वापरतें थे, तथा पहले ऐसे अयपिंड को व्यवस्था से या अव्यवस्था से लेते थे, इस अभिप्राय से पुनः पूर्व की तरह हम भी यहां प्राप्त करें ऐसा सोचकर जहां अयपिंडादि हो वहां श्रमण आदि जल्दी जल्दी से जाते हैं ऐसा देखकर वह साधु ऐसा सोचे कि- मैं भी जल्दी से वहां जाऊं... ऐसा करने पर वह साधु माया (कपट) करता है... किंतु साधुओं को ऐसा नही करना चाहिये... अब भिक्षाटन की विधि सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि कोई गृहस्थ अव्यपिंड को देव स्थानक में ले जा रहा हो, या अन्य मत के भिक्षु उस पिण्ड को खा रहे हों, खा चुके हों या खाने जा रहे हों तो जैन मुनि को उस स्थान पर उसे ग्रहण करने के लिए जाने का,संकल्प नहीं करना चाहिए। क्योंकि- वह अयपिण्ड अन्य देव या भिक्षु आदि के निमित्त से निकाला गया है, इसलिए मुनि को ऐसा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। परन्तु गृहस्थ ने अपने एवं परिवार के लिए बनाये हुए निर्दोष आहार में से समस्त दोषों को टालते हुए साधु थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करें। जैसे- भ्रमर एक ही फूल से रस न लेकर अनेक पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपने आप को तृप्त करता है और फूल के सौंदर्य को भी नहीं बिगाड़ता, उसी तरह मुनि भी प्रत्येक घर से उतना ही आहार ग्रहण करे जिससे उस परिवार को न तो भूखे रहना पड़े और न फिर से भोजन तैयार करना पड़े। __ प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि- उस युग में भोजन बनाने के बाद उसमें से देव आदि के निमित्त अयपिण्ड निकालने की परम्परा थी और वह अग्रपिण्ड भी पर्याप्त मात्रा में होता था, जिसे वे लोग देव स्थान पर ले जाकर प्रसाद के रूप में बांटते थे। जैसे आजकल अन्य धर्मों में देव मन्दिर में चढ़ाए गए भोग (अन्न आदि) को बांटने का रिवाज है। उस अयपिण्ड में से शाक्यादि भिक्षु भी प्रसाद या आहार रूप में लेते थे। इसलिए साधु के लिए ऐसा आहार ग्रहण करने का निषेध किया है। क्योंकि- इसमें एषणीय एवं निर्दोषता की कम संभावना रहती है।