________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-1 (359) 71 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 5 पिण्डैषणा // चौथा उद्देशक कहा, अब पांचवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, इसका यहां यह परस्पर संबंध हैं कि- तीसरे उद्देशक में आहारादि पिंड की ग्रहण विधि कही, अब यहां चौथे उद्देशक में भी वही बात विशेष प्रकार से कहेंगे... ' I सूत्र // 1 // // 359 // . से भिक्खू वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-अग्गपिंडं उक्खिप्पमाणं पेहाए अग्गपिंड निक्खिप्णमाणं पेहाए अग्गपिंडं हीरमाणं पेहाए अग्गपिंड परिभाइज्जमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिभुंजमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिदृविजमाणं पेहाए पुरा असिणाइ वा अवहाराइ वा पुरा जत्थ अण्णे समण-वणीमगा खद्धं खद्धं उवसंकमंति, से हंता अहमवि खद्धं खद्धं उवसंकमामि, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेजा // 359 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात्- अग्रपिण्डं उत्क्षिप्यमाणं प्रेक्ष्य, अग्रपिण्डं ह्रियमाणं प्रेक्ष्य, अग्रपिण्डं परिभज्यमानं प्रेक्ष्य, अग्रपिण्डं परित्यज्यमानं प्रेक्ष्य पुरा अशितवन्तः वा अपहृतवन्त: वा, पुरा यत्र अन्ये श्रमण-वनीपका त्वरितं त्वरितं उपसङ्क्रामन्ति, स: हन्त ! अहमपि त्वरितं त्वरितं उपसङ्क्रमामि, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् // 259 // III सूत्रार्थ : ... कोई साधु अथवा साध्वी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर अयपिंड को निकालते हुए देखकर, अगपिंड को फेंकते हुए देखकर अथवा अन्य लोगों ने पहले भोजन कर लिया है अथवा अन्य श्रमण-ब्राह्मणादि, अतिथि, दरिद्र, याचक पहले उसे लेने के लिये जा रहे हैं, अतः मैं भी उन आहारादि को ऐसा विचार करने वाला साधु मातृस्थान का स्पर्श करता है। इसलिए ऐसा नहीं करना चाहिए। / / 3 59 //