________________ 386 2-1-7-1-2 (490) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के बिना ग्रहण नहीं करता। यदि किसी साधु के छत्र, चर्मछेदनी आदि पदार्थ रखे हुए हैं और अन्य साधु को उनकी आवश्यकता है; तो वह उस साधु की आज्ञा के बिना उन्हें ग्रहण नहीं करेगा। प्रस्तुत अधिकार में छत्र का अर्थ है-वर्षा के समय सिर पर लिया जाने वाला ऊन का कम्बल। और स्थविरकल्पी मुनि विशेष कारण उपस्थित होने पर छत्र भी रख सकते हैं। वृत्तिकार ने भी अपवाद मार्ग में छत्र-छाता रखने की बात कही है। अतः छत्र शब्द से कम्बल और छा दोनों में से कोई भी वस्तु हो सकता है। इसी तरह साधु किसी कार्य के लिए गृहस्थ के घर से चर्मछेदनी या असिपुत्र (चाकू) आदि लाया हो और दूसरे साधु को इन वस्तुओं की या उसके पास में स्थित अन्य वस्तुओं में से किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो वह उक्त मुनि की आज्ञा लेकर उस वस्तु को ग्रहण कर सकता है। इस तरह साधु स्तेय कर्म से पूर्णतः निवृत्त होकर साधना पथ में गति-प्रगति करता हुआ अपने लक्ष्य पर पहुंचने का प्रयत्न करता है। इस विषय को आगे बढ़ाते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 2 // // 490 // से भिक्खू० आगंतारेसु वा अणुवीइ उग्गहं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिठ्ठए, ते उग्गहं अणुण्णविज्जा- कामं खलु आउसो० ! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो जाव आउसो जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिया एइ तावं उग्गहं उग्गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो / से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवागच्छिज्जा, जे तेण सयमेसित्तए असणे वा, तेण ते सहम्मिया, उवनिमंतिज्जा, नो चेव णं परवडियाए ओगिज्झिय, उवनि० // 490 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः० आगन्तागारेषु वा, अनुविचिन्त्य अक्ग्रहं याचेत, ये ता ईश्वराः, ये तत्र समधिष्ठातारः तेभ्यः अवग्रहं अनुज्ञापयेत्- कामं खलु हे आयुष्मन् ! यथालन्दं यथापरिज्ञातं वसामः, यावत् हे आयुष्मन् ! आयुष्मत: अवग्रहे यावन्तः साधर्मिका: एष्यन्ति तावन्तं अवग्रहं अवग्रहिष्यामः, तेन परं विहरिष्यामः / ___ सः किं पुनः तत्र अवग्रहे एव अवगृहीते ? ये तत्र साम्भोगिकाः समनोज्ञा: उपागच्छेयुः, ये तेन स्वयं एषितुं अशनं वा तेन ते साधर्मिकाः, उपनिमन्येरन्, न च