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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-1-1 (489) 385 अगार याने घर... यह अगार जिन्हें नहि हैं वे अनगार... अर्थात् घर की मायाजाल के त्यागी... तथा जिनके पास कुछ भी नहि है वे अकिंचन अर्थात् परिग्रह के त्यागी... तथा अपुत्र याने स्वजन-बंधु परिवार से रहित अर्थात् निर्मम = ममता रहित... तथा अपशु याने दो पाउंवाले दासदासी एवं चार पैरवाले गाय-घोडे आदि के त्यागी... इत्यादि विशेषणवाला जो साधु है वह परदत्तभोजी याने गृहस्थों के द्वारा दीये गये आहार आदि को वापरनेवाला वह साधु ऐसा सोचता है कि- मैं अब पाप-कर्म नहि करूंगा... इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके वह मनुष्य श्रमणसाधु होता है... वह इस प्रकार- हे भगवन् ! मैं सभी प्रकार के अदत्त को ग्रहण करने का त्याग करता हुं अर्थात् अदत्तादान का पच्चक्खाण करता हुं... त्याग करता हुं... याने अन्य गृहस्थ आदि ने नहि दीये हुए तृण-तिनके मात्र का भी ग्रहण नहि करुंगा... इस विशेषण के द्वारा शाक्य, सरजस्क आदि अन्य मतवालों में सच्चा साधुपना है कि- क्या ? यह प्रश्न है... अब उपर कहे गये विशेषणवाला अकिंचन साधु गांव, नगर या राजधानी में प्रवेश करके स्वयं हि अदत्त व्यहण न करे, तथा अन्य के द्वारा भी अदत्त का ग्रहण न करवाये... तथा इसी हि प्रकार. यदि कोइ अदत्त ग्रहण करता हो तो उसकी अनुमोदना-प्रशंसा न करें... तथैव जिस साधुओं के साथ प्रवजित हुआ है अर्थात् श्रमणत्व का स्वीकार कीया है उनके जो जो उपकरणवस्तुएं हैं उन वस्तुओं को भी उनकी रजा-अनुमति के सिवा ग्रहण न करें... जैसे कि- छत्र याने वर्षाकल्पादि अथवा कुंकण देश आदि में अतिवृष्टि की संभावना से छत्र याने छत्री (बरसाती) आदि से लेकर यावत् चर्म छेदनक याने चप्पु-कैंची आदि कोइ भी वस्तु उन साधुओं की अनुमति-रजा के बिना एवं पडिलेहण किये बिना एक बार या बार बार ग्रहण न करें... किंतु यदि ऐसी कोई वस्तु की आवश्यकता हो तब ग्रहण करने के पूर्व हि उनकी अनुमति प्राप्त करें तथा चक्षु से पडिलेहण एवं रजोहरणादि से प्रमार्जना करके एक बार या बार बार ग्रहण करें इत्यादि... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में साधु के अस्तेय महाव्रत का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु किसी व्यक्ति की आज्ञा के बिना सामान्य एवं विशिष्ट कोई भी पदार्थ स्वीकार न करे। वह दीक्षित होते समय यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं घर, परिवार, धन-धान्य आदि का त्याग करके तप-साधना के तेजस्वी पथ पर आगे बढूंगा और साध्य-सिद्धि तक पहुंचने में सहायक होने वाले आवश्यक पदार्थों एवं उपकरणों को बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करूंगा। इस तरह साधक जीवन पर्यन्त के लिए चोरी का सर्वथा त्याग करके साधना पथ पर कदम रखता है। यहां तक कि वह अपने कुल-गण के साधुओं की कोई भी वस्तु को उनकी आज्ञा
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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