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________________ 384 2-1-7-1-1 (489) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अदिण्णं गिण्हते वि अण्णे न समणुजाणिज्जा, जेहिं वि सद्धिं संपव्वइए तेसिं पि जाई छत्तगं वा जाव चम्मछेयणगं वा तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय नो उग्गिण्हिज्जा वा परिगिव्हिज्ज वा० // 489 // II संस्कृत-छाया : श्रमण: भविष्यामि अनगारः अकिञ्चन अपुत्रः अपशुः परदत्तभोजी पापं कर्म न करिष्यामि इति समुत्थाय सर्वं भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, स: अत:नुप्रविश्य ग्राम वा यावत् राजधानी वा नैव स्वयं अदत्तं गृहामि, नैवाऽन्यैः अदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णत: अपि अन्यान् न समनुजानामि यैः अपि सार्द्ध संप्रव्रजितः, तेषां यानि छत्रं वा यावत् चर्मच्छेदनकं वा तेषां पूर्वमेव अवग्रहं अननुज्ञाप्य अप्रत्युपेक्ष्य, अप्रमृज्य न अवग्रहिष्यामि वा परिग्रहिष्यामि वा, तेषां पूर्वमेव अवग्रहं याचित्वा अनुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य ततः संयतः एव अवगृह्णीयात् वा परिगृह्णीयात् वा // 489 // III सूत्रार्थ : दीक्षित होते समय दीक्षार्थी सोच-विचार पूर्वक कहता है कि मैं श्रमण-तपस्वी-तप करने वाला बनूंगा, जो घर से, परिग्रह से, पुत्रादि सम्बन्धियों से और द्विपद-चतुष्पद आदि पशुओं से रहित होकर गोचरी (भिक्षा) लाकर संयम का पालन करने वाला साधक बनूंगा, परन्तु कभी भी पापकर्म का आचरण नहीं करूंगा। हे भदन्त ! इस प्रकार की प्रतिज्ञा में आरूढ़ होकर आज मैं सर्वप्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं। ग्राम, नगर, यावत् राजधानी में प्रविष्ट संयमशील साधु स्वयं अदत्त—बिना दिए हुए पदार्थों को ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण कराए और जो अदत्त ग्रहण करता है उसकी अनुमोदना (प्रशंसा) भी न करे। एवं वह मुनि जिनके पास दीक्षित हुआ है, या जिनके पास रह रहा है उनके छत्र यावत् चर्म छेदक आदि जो कोई उपकरण विशेष हैं, उनको बिना आज्ञा लिए तथा बिना प्रतिलेखना और प्रमार्जन किए व्यहण न करे। किन्तु पहले उनसे आज्ञा लेकर और उसके बाद उनका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उन पदार्थों को स्वीकार करे / अर्थात् बिना आज्ञा से वह कोई भी वस्तु ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : जो श्रम करे वह श्रमण... तपस्वी... साधु यह सन्मति से विचार करे कि- मैं श्रम करूं, कि- जिससे मैं श्रमण-तपस्वी हो शकुं... तथा अग याने वृक्ष उन वृक्ष से जो बने वह
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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