________________ * श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-1-1 (489) 383 अवग्रह जैसे कि- रजोहरणादि उपकरण... तथा (3) मिश्र याने रजोहरणादि सहित शिष्य आदि.. तथा क्षेत्र अवग्रह भी सचित्तादि तीन प्रकार से है... अथवा (1) गांव, (2) नगर, (3) अरण्य... तथा काल अवग्रह के दो भेद हैं... (1) ऋतुबद्ध याने चतुर्मास को छोडकर शेष काल... एवं (2) वर्षाकाल याने चतुर्मास काल.... अब भाव-अवग्रह का स्वरूप कहतें हैं... नि. 321 भाव-अवग्रह के दो प्रकार हैं... 1. मति अवग्रह... और 2. ग्रहण अवग्रह... अब मति अवग्रह के भी दो भेद हैं... 1. अर्थावग्रह, 2. व्यंजन अवग्रह... उनमें अर्थावग्रह के छह (6) प्रकार हैं... पांच इंद्रियां एवं मन... तथा व्यंजनावग्रह के चार प्रकार हैं... जैसे कि- चक्षु एवं मन के सिवाय शेष चार इंद्रियो का व्यंजनावग्रह... इस प्रकार मति-भावावग्रह के कुल दश (10) भेद हुए... . अब ग्रहण-भाव-अवग्रह का स्वरूप कहतें हैं... नि. 322 * परिग्रह के त्यागी ऐसे साधु को जब आहारादि पिंड, वसति-उपाश्रय, वस्त्र तथा पात्र ग्रहण करने का विचार-परिणाम हो तब ग्रहण भावावग्रह होता है... इस स्थिति में साधु विचार करे कि- हमे शुद्ध वसति आदि दीर्घकाल के लिये या अल्प काल के लिये किस प्रकार से प्राप्त हो... इस प्रकार सोच-विचार करके साधु अवग्रह हेतु यत्न करे... और पूर्व कहे गये देवेन्द्र आदि के पांच प्रकार के अवग्रह को भी इस ग्रहण भावावग्रह में भी समाविष्ट कीया गया है... इस प्रकार नाम निष्पन्न निक्षेप की बात कही, अब सूत्रानुगाम में सूत्र का शुद्ध उच्चार करें... I सूत्र // 1 // // 489 // समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोई पावं कम्मं नो करिस्सामित्ति समुट्ठाए सव्वं भंते ! अदिण्णादाणं पच्चक्खामि, से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणिं वा नेव सयं अदिण्णं गिण्हिज्जा, नेवऽण्णेहिं अदिण्णं गिहाविज्जा,