________________ 182 2-1-2-1-6 (403) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भावना को सामने रखकर साधु को परिवार युक्त मकान में ठहरने का निषेध किया गया है, जिससे वह पारिवारिक संघर्ष से अलग रहकर अपनी साधना में संलग्न रह सके। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 6 // // 403 // आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावई अप्पणो सयट्ठाए अगणिकायं उज्जालिज्जा वा पज्जालिज्जा वा विज्झविज्ज वा, अह भिक्खू उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए अगणिकायं उ० वा. मा वा उ० पज्जालिंतु वा मा वा प० विज्झविंतु वा मा वा वि०, अह भिक्खूणं पुटवो० जं तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा, चेइज्जा || 403 // II संस्कृत-छाया : आदनमेतत् साधोः गृहपतिआदिभिः (गृहस्थैः) (सह) सार्द्ध संवसतः, इह खलु गृहपतिः आत्मनः स्वार्थाय अग्निकायं उज्ज्वालयेत् वा प्रज्वालयेत् वा विध्यापयेत् वा, अथ भिक्षुः उच्चावचं मनः कुर्यात् / एते खलु अग्निकायं उज्ज्वालयन्तु वा, मा वा उज्ज्वालयन्तु, प्रज्वालयन्तु वा, मा वा प्रज्वालयन्तु, विध्यापयन्तु वा, मा वा विध्यापयन्तु। अथ भिक्षूणां पूर्वोप० यत् तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थानं वा घेतयेत् // 403 // III सूत्रार्थ : गृहस्थादि से युक्त उपाश्रय में ठहरना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है। क्योंकि वहां पर गृहस्थ लोग अपने प्रयोजन के लिए अग्नि को उज्ज्वलित और प्रज्वलित करते हैं या प्रज्वलित आग को बुझाते हैं। अतः उनके साथ बसते हुए भिक्षु के मन में कभी ऊंचेनीचे परिणाम भी आ सकते हैं। कभी वह यह भी सोच सकता है कि यह गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित और प्रज्वलित करें या ऐसा न करें, यह अग्नि को बुझा दें या न बुझाएं। इसलिए तीर्थंकरादि ने भिक्षु को पहले ही यह उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के सागारिक उपाश्रय में न ठहरे। IV टीका-अनुवाद : इस सूत्र में भी यह कहा गया है कि- गृहपति आदि अपने लिये अग्नि का समारंभ करे तब साधु के मन में "उच्च'' याने यह लोग इस प्रकार अग्नि का समारंभ न करें इत्यादि विचार आवे, तथा “अवच'' याने अग्नि का समारंभ करे... इत्यादि विचार आवे... शेष