________________ 390 2-1-7-1-4 (492) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उस घर के मालिक के संबंधित नहि है उसके पास से कभी सूइ आदि की आवशक्यता होने पर मात्र अपने खुद के लिये हि लेवे, वह सूइ आदि वस्तु अन्य साधुओं को न दे... किंतु कार्य पूर्ण होने पर उसी मनुष्य को वह सूई आदि वस्तु सूत्रोक्त विधि से वापस लौटा दे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि गत सूत्र में कथित विधि से आज्ञा लेकर ठहरे हुए साधु के पास कोई असम्भोगिक एवं अन्य सामाचारी का पालन करने वाले साधु आ जाएं तो वह अपने लाए हुए शय्या-संथारे या पाट-तख्त आदि से उसका सत्कार-सन्मान करे अर्थात् उसे उनका आमन्त्रण करे, परन्तु अन्य के लाए हुए पाट आदि का उसे निमन्त्रण न करे। इससे स्पष्ट होता है कि- ऐसे उन यहां आए हुए साधर्मिक एवं चारित्रनिष्ठ साधक का- जिसके साथ आहार-पानी का संभोग नहीं है और जिसकी सामाचारी भी अपने समान नहीं है, शय्यासंस्तारक आदि से सम्मान करना चाहिए... आगम में बताया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवान महावीर के साधुओं की सामाचारी भिन्न थी, उनका परस्पर साम्भोगिक सम्बन्ध भी नहीं था। फिर भी जब गौतमस्वामी केशी श्रमण के स्थान पर पहुंचे तब केशी श्रमण ने गौतमस्वामी का स्वागत किया और उन्हें निर्दोष एवं प्रासुक पलाल (घास) आदि का आसन लेने की प्रार्थना की। इससे पारस्परिक धर्म-स्नेह में अभिवृद्धि होती है और पारस्परिक मेलमिलाप एवं विचारों के आदान-प्रदान से चारित्र-जीवन का भी विकास होता है। अतः असम्भोगी साधु का शय्या आदि से सम्मान करना प्रत्येक साधु का कर्तव्य है। प्रस्तुत सूत्र के उत्तरार्ध में बताया गया है कि यदि साधु अपने प्रयोजन (कार्य) के लिए किसी गृहस्थ से सूई, कैंची, कान साफ करने का शस्त्र आदि लाया हो तो वह उसे अपने काम में ले, किन्तु अन्य साधु को न दे। और अपना कार्य पूरा होने पर उन वस्तुओं को गृहस्थ के घर जाकर हाथ लम्बा करके भूमि पर रख दे और उसे कहे कि यह अपने पदार्थ सम्भाल लो। परन्तु, वह साधु उन पदार्थों को उसके हाथ में न दे। इस विषय का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 492 // से भि० से जं0 उग्गहं जाणिज्जा अनंतरहियाए पुढवीए जाव स ससंताणए तह उग्गहं नो गिहिज्जा वा / से भि० से जं पुण उग्गहं थूणंसि वा, तह० अंतलिक्खजाए दुब्बद्धे जाव बो उगिव्हिज्जा वा /