________________ 532 2-3-32 (540) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब पांचवीं भावना को कहते हैं- यह जीव स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा प्रिय और अप्रिय स्पर्शों का अनुभव ज्ञान-संवेदन करता है, किन्तु प्रिय स्पर्श में राग और अप्रिय स्पर्श में द्वेष न करे। केवली भगवान कहते हैं कि साधु प्रिय स्पर्श में राग और अप्रिय में द्वेष करता हुआ शान्ति भेद, शान्ति विभंग करता हुआ शान्तिरुप केवली भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। स्पर्शेन्द्रिय के सन्निधान में आए हुए स्पर्श के पुद्गल बिना स्पर्शित हुए-बिना अनुभव किए नहीं रह सकते, किन्तु वहां पर जो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है साधु उसको सर्वथा छोड़ दे। स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा जीव प्रिय तथा अप्रिय स्पर्शों का अनुभव करता है, परंतु उनमें राग और द्वेष का न करना यह पांचवीं भावना कही गई है। __ इस प्रकार यह पांचवां महाव्रत सम्यक् प्रकार से काया द्वारा स्पर्श किया हुआ, पालन किया हुआ, तीर पहुंचाया हुआ, कीर्तन किया हुआ अवस्थित रखा हुआ और आज्ञा पूर्वक आराधन किया हुआ होता है। इस पांचवें महाव्रत में सर्व प्रकार के परिग्रह का त्याग किया जाता है। IV टीका-अनुवाद : पांचवे महाव्रत की भावनाएं इस प्रकार हैं... श्रोत्र याने कान के विषय में आये हुए अच्छे या बुरे शब्दों को सुनकर साधु उसमें गृद्धि याने राग और द्वेष न करे... इसी प्रकार चक्षु के विषय में आये हुए रूप को देखकर साधु राग एवं द्वेष न करे... नासिका के विषय में आये हुए गंध के प्रति भी साधु राग एवं द्वेष न करे... जीभ के विषय में भी साधु राग-द्वेष न करे... स्पर्श के विषय में भी साध राग-द्वेष न करे... शेष सूत्र के सभी पद सुगम है... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधक को परिग्रह से निवृत्त होने का आदेश दिया गया है। परिग्रह से आत्मा में अशान्ति बढ़ती है। क्योंकि, रात दिन परिग्रह को बढ़ाने एवं सुरक्षा करने की चिन्ता बनी रहती है। जिससे साधक निश्चिन्त मन से स्वाध्याय आदि की साधना भी नहीं कर सकता है। इसलिए भगवान ने साधक को परिग्रह से सर्वथा मुक्त रहने का आदेश दिया है। साधु को थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल किसी भी तरह का परिग्रह नहीं रखना चाहिए।