________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-32 (540) 533 इसके साथ आगम में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि साधु साधना में सहायक उपकरणों को स्वीकार कर सकता है। वस्त्र का परित्याग करने वाले जिन कल्पी मुनि भी कम से कम मुखवत्रिका, और रजोवहरण ये दो उपकरण अवश्य रखते हैं। वर्तमान में दिगम्बर मुनि भी मोर पिच्छी और कमण्डल तो रखते ही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि संयम में सहायक होने वाले पदार्थों को रखना या ग्रहण करना परियह नहीं है। परन्तु उन पर ममता, मूर्छ एवं आसक्ति रखना परिग्रह है। आगम में स्पष्ट कहा गया है कि संयम एवं आध्यात्मिक साधना में तेजस्विता लाने वाले उपकरण (वस्त्र-पात्र आदि) परिग्रह नहीं है। किन्तु उन पर मूर्छा एवं आसक्ति करना परिग्रह है। तत्वार्थ सूत्र में भी वस्त्र रखने को परिग्रह नहीं कहा है। उन्होंने भी आगम में अभिव्यक्त मूर्छा, या ममत्व को ही परिग्रह माना है। वस्त्र एवं पात्र ही क्यों, यदि अपने शरीर पर भी ममत्व है, तो वह भी परिग्रह का कारण बन जायगा। अतः साधक को मूर्छा ममता एवं आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संयमोपकरणों से संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। अब पंचम महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख करते हुए सूत्रकार आगे कहते हैं। इस सूत्र में पांचवें महाव्रत की पांच भावनाएं बताई गई है- 1. प्रिय और अप्रिय शब्द, 2. रुप, 3. गन्ध, 4. रस और 5. स्पर्श पर राग द्वेष न करे। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि साधक कान, आंख, नाक आदि बन्द करके चले। उसे अपनी इन्द्रियों को बन्द करने की आवश्यकता नहीं है। शब्द कान में पड़ते रहें, इसमें कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु, उन प्रिय या अप्रिय शब्दों के ऊपर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। मधुर एवं कर्ण प्रिय गीतों को सुनने या इसी तरह दूसरे व्यक्ति की निन्दा-चुगली सुनने के लिए उस ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। इससे स्वाध्याय का अमूल्य समय नष्ट होता है एवं मन में रागद्वेष की भावना भी उत्पन्न हो सकती है। अतः साधक को किसी भी तरह के शब्दों पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। इसी तरह अपनी आंखों के सामने आने वाले सुन्दर एवं कुत्सित रुप पर भी रागद्वेष नहीं करना चाहिए। उसे सुंदर, सुहावने दृश्यों एवं लावण्यमयी स्त्रियों आदि के रुप को देखकर उस पर मुग्ध एवं आसक्त नहीं होना चाहिए और न घृणित दृश्यों को देखकर नाकभौं सिकोड़ना चाहिए। साधक को सदा राग-द्वेष से ऊपर उठकर तटस्थ रहना चाहिए। इसी तरह वायु के साथ पदार्थों में से आने वाली सुगन्ध एवं दुर्गन्ध के समय भी साधु को मध्यस्थ भाव रखना चाहिए। सुवासित पदार्थों में राग भाव नहीं रखना चाहिए और न दुर्गन्धमय पदार्थों पर द्वेष भाव / साधक को सदा राग-द्वेष से ऊपर उठकर संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए।