________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-32 (540) 531 हूं। मैं अल्प, बहुत, सूक्ष्म, स्थूल तथा सचित्त और अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को न स्वयं ग्रहण करुंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करुंगा। मैं अपनी आत्मा को परिग्रह से सर्वथा पृथक् करता हूं। इस पंचम महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं___उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है- श्रोत्र से यह जीव प्रिय तथा अप्रिय शब्दों को सुनता है, परन्तु वह प्रिय तथा अप्रिय शब्दों में आसक्त न हो, राग भाव न करे, गृद्ध न हो, मूर्छित न हो, तथा अत्यन्त आसक्ति एवं राग द्वेष न करे, केवली भगवान कहते हैं कि साधु मनोज्ञा मनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता हुआ, राग करता हुआ यावत् विद्वेष करता हुआ शान्ति भेद एवं शान्ति विभंग करता है और केवली भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है तथा श्रोत्र विषय में आए हुए शब्द ऐसे नहीं जो सुने न जावें किन्तु उनके सुनने पर जो राग द्वेष की उत्पत्ति होती है, उसका भिक्षु परित्याग कर दे। अतः जीव के श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में आए हुए प्रिय और अप्रिय शब्दों में साधु राग द्वेष न करे। यह प्रथम भावना कही गई है। चक्षु के द्वारा यह जीव प्रिय तथा अप्रिय रुपों को देखता है, प्रिय सुन्दर रुपों में आसक्त होता हुआ यावत् द्वेष करता हुआ शान्ति भेद यावत् धर्म से पतित हो जाता है। तथा चक्षु के विषय में आया हुआ रुप अदृष्ट नहीं रह सकता अर्थात् वह अवश्य दिखाई देगा, परन्तु उसको देखने से उत्पन्न होने वाले राग; द्वेष का भिक्षु परित्याग कर दे। इस तरह चक्षु के द्वारा देखे जाने वाले प्रिय और अप्रिय रुपों पर साधु-श्रमणो को राग-द्वेष नहीं करना चाहिए, यह द्वितीय भावना है। तीसरी भावना यह है-नासिका के द्वारा जीव प्रिय तथा अप्रिय गंधों को सूंघता है, परन्तु प्रिय तथा अप्रिय गंधों को सूंघता हुआ उनमें राग-द्वेष न करें, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि प्रिय तथा अप्रिय गंधों में राग द्वेष करता हुआ साधु शांति का भेदन करता हुआ धर्म से भ्रष्ट होजाता है। तथा ऐसा भी नहीं होता कि नासिका के सन्निधान में आए हुए गंध के परमाणु पुद्गल सूंघे न जा सके। परन्तु इसका तात्पर्य इतना ही है कि साधु उनमें राग द्वेष न करे। चतुर्थ भावना इस प्रकार वर्णन की गई है-जीव जिह्वा से प्रिय तथा अप्रिय रसों का आस्वाद ज्ञान होता है किन्तु उनमें राग-द्वेष न करे। केवली भगवान कहते हैं प्रिय तथा अप्रिय रसों में आसक्त एवं राग-द्वेष करने वाला निर्ग्रन्थ शान्ति भेद और धर्म से पतित हो जाता है। तथा जिह्वा को प्राप्त हुआ रस अनास्वादित नहीं रह सकता किन्तु उसमें जो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है उसका भिक्षु परित्याग कर दे। और जिह्वा से आस्वादित होने वाले प्रिय तथा अप्रिय रसों में राग-द्वेष से रहित होना यह चतुर्थ भावना है।