________________ 462 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होकर निर्दयता के साथ जीव हिंसा करता है और उसके बाद सतत जीवहिंसा के कार्य में लगा रहता है... नि. 332 प्रशस्त भावना के अधिकार में दर्शन ज्ञान चारित्र तपश्चर्या एवं वैराग्य आदि भावों में होनेवाली प्रशस्त भावना का स्वरुप अब क्रमशः लक्षण के साथ कहतें हैं... नि. 333 दर्शन भावना इस प्रकार है... तीर्थकर भगवंतो के प्रवचन स्वरुप द्वादशांगी-गणिपिटक का, तथा प्रावचनी याने युगप्रधान ऐसे आचार्यादि का, तथा अतिशय-ऋद्धिवाले केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदपूर्वधर दशपूर्वधर आदि का, तथा आमर्पोषध्यादि ऋद्धि को प्राप्त करने वाले का जो सन्मुख गमन स्वरुप स्वागत करना, दर्शन करना, गुणों की प्रशंसा करना तथा सुगंधिचूर्ण आदि से पूजा करना एवं स्तोत्र के द्वारा स्तवना करना, इत्यादि स्वरुप प्रशस्त दर्शन भावना है... इस दर्शन भावना से आत्मा को निरंतर भावित करने से आत्मा में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं विशुद्धि होती है... नि. 334-334 तथा तीर्थंकर परमात्माओं की जन्मभूमि में, एवं दीक्षा-भूमि, विहारभूमि, केवलज्ञानभूमि तथा निर्वाण-भूमि में, अशाश्वत जिनालय तथा देवलोक के विमान-भवनों में मेरुपर्वत के उपर, नंदीश्वरद्वीप आदि में तथा भौम याने पाताल-लोक के भवनों में जो कोइ शाश्वत जिनालय हैं उन्हें मैं वंदन करता हूं... इसी प्रकार अष्टापद तीर्थ, उज्जयंत याने गिरनार तीर्थ, तथा दशार्णगिरि के ऊपर रहा हआ गजाग्रपद तीर्थ, तक्षशिला में धर्मचक्र एवं अहिच्छत्रा में पार्श्वनाथ प्रभु का धरणेन्द्र ने किया हुआ महिमावाला स्थान, तथा जहां वजस्वामीजी ने पादपोपगमन अनशन किया था वह रथावत नाम का पर्वत, तथा जहां वर्धमान स्वामीजी कार्योत्सर्ग ध्यान में रहे थे वहां चमरेन्द्र के आगमनवाला स्थान... इत्यादि पवित्र तीर्थ-स्थानों में जाना, और वंदन, पूजन एवं गुण-स्तवना करनेवाले जीव में सम्यग् दर्शन की शुद्धि होती है.... नि. 338-330 प्रवचन याने द्वादशांगी के परमार्थ को जाननेवालों ने यह गुण निष्पन्न अर्थ निकाला है कि- बीजगणित आदि गणित के विषय में यह पारंगत है, तथा अष्टांग निमित्तशास्त्र में यह परगामी है, तथा दृष्टिवाद में कहे गये विभिन्न प्रकार के द्रव्यसंयोग या उनके हेतु (कारण) को जानते हैं... तथा देव भी चलायमान न कर सके ऐसी सम्यग्दर्शन = दृष्टिवाले तथा अवितथ