________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 463 याने सत्य (सच्चे) ज्ञानवाले कि- वे जो कहतें हैं वैसा ही वह होता है... इत्यादि गुणवाले प्रावचनिक याने आचार्य आदि की प्रशंसा करनेवाले की दर्शन विशुद्धि होती है... इसी प्रकार आचार्य आदि के अन्य गुणों की भी प्रशंसा करनेवाले तथा पूर्वकालीन महर्षियों के नाम का स्मरण करनेवाले तथा उन महर्षियों की सेवा-पूजा देवेन्द्र एवं नरेन्द्र आदिने की है ऐसा कहनेवाले तथा प्राचीनकाल के तीर्थों की पूजा करनेवाले इत्यादि उचित क्रियाओं को करनेवाले शुभ वासना से वासित होते हैं, अतः उनकी दर्शनविशुद्धि होती है... इस प्रकार प्रशस्त दर्शन-भावना जानें! अब प्रशस्त ज्ञान-भावना का स्वरुप कहतें हैं... ज्ञानकी जो भावना वह ज्ञानभावना... जैसे कि- जिनेश्वरों ने कही गयी यह द्वादशांगी स्वरुप प्रवचन-श्रुतज्ञान विश्व के सभी पदार्थों का जैसा है वैसा यथावस्ति स्वरुप को प्रगट करता है... इस प्रशस्त ज्ञान-भावना से मोक्ष का प्रधान-मुख्य अंग स्वरुप अधिगम सम्यग्दर्शन प्रगट होता है... क्योंकि- तत्त्वों के स्वरुप की श्रद्धा को ही सम्यग्दर्शन कहतें हैं... और जीव अजीव आदि नव पदार्थ ही तत्त्व है... अतः सम्यग्ज्ञान की कामनावाले पुण्यात्मा ही उन नव पदार्थ (तत्त्वों) को अच्छी तरह से जानने का प्रयत्न करतें हैं... . नव तत्त्व का विज्ञान यहां जिन प्रवचन में उपलब्ध है... तथा परमार्थ स्वरुप मोक्ष नाम का कार्य भी जिन प्रवचन में उपलब्ध है... तथा क्रिया की सिद्धि में सम्यग्दर्शन ज्ञान एवं चारित्र हि मुख्य उपकारक है और सम्यग्दर्शनादि के अनुष्ठान को करनेवाला साधु ही कारक है और मोक्ष की प्राप्ति स्वरुप क्रियासिद्धि भी यहां जिनप्रवचन में है... वह इस प्रकार- जैसे कि- आत्मा के साथ कर्मो का बंधन और आत्मा से कर्मो की मुक्ति... यह बात केवल जिनप्रवचन में ही है. अन्य शाक्य आदि मतो में नही है... इत्यादि प्रकार की भावना-विचार करनेवाले को ज्ञान भावना होती है... तथा आठ प्रकार के कर्म-पुद्गलों से संसारी सभी जीवों के आत्म-प्रदेश बंधे हुए हैं, क्योंकि- कर्मबंध के कारण मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद कषाय और योग हैं अतः इन कारणों से कर्मो का बंध करके संसारी-जीव चारों गतिओं में जन्म पाकर साता-असाता आदि का अनुभव करता है... यह सभी बातें यहां जिनप्रवचन में ही कही गई है... अथवा अन्य भी जो कुछ अच्छी बात है, वह भी इस जिनप्रवचन में ही कही गइ है... इत्यादि भावना को ज्ञानभावना कहतें हें... तथा विचित्र प्रकार का यह संसार-प्रपंच भी यहां जिनागम सूत्र में जिनेश्वरों ने कहा है.... तथा मेरा ज्ञान विशिष्ट प्रकार का हो ऐसी ज्ञानभावना करनी चाहिये... श्रुतज्ञान का अभ्यास करना चाहिये... और आदि-पद से एकाग्रता-प्रणिधान आदि गुण प्राप्त होते हैं... और ज्ञानभावना में यह भी चिंतन करना चाहिये कि- अज्ञानी जीव लाखों जन्मों में असह्य दुःख