________________ 464 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भुगतने के बाद भी जो कर्मक्षय का लाभ नही प्राप्त करता, उन कर्मो का क्षय ज्ञानी पुरुष ज्ञानभावना से दो घडी (मुहूर्त) मात्र काल में करता है... तथा इन कारणों से भी ज्ञान का अभ्यास करना चाहिये... जैसे कि- ज्ञानका संग्रह हो, कर्मो की निर्जरा हो, ज्ञान की परंपरा चलती रहे, और स्वाध्याय होता रहे... तथा ज्ञानभावना से ही मनुष्य सदा गुरुकुल-वास में निवास कर सकता है... अन्यत्र भी कहा है कि- जो धन्य पुरुष जीवन पर्यंत गुरुकुलवास में रहता है वह ज्ञान का पात्र होता है और सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्चारित्र में स्थिरता प्राप्त होती है... इत्यादि ज्ञानभावना है... अब चारित्र-भावना का स्वरुप कहतें हैं... सुंदर ऐसा अहिंसा स्वरुप धर्म... इस जिन-प्रवचन में जिस प्रकार का सत्य है वैसा सत्य और कहिं नही है... चोरी का त्याग यहां जिनप्रवचन में बहुत ही अच्छी प्रकार से हो सकता है... नव-वाड स्वरुप ब्रह्मचर्य भी यहां ही है... परिग्रह का त्याग भी श्रेष्ठ प्रकार से होता है... इसी प्रकार बारह भेदवाला अच्छा तप (तपश्चर्या) भी इस जिनप्रवचन में ही हो सकता है... . अब वैराग्य-भावना का स्वरुप कहतें हैं... 1. सांसारिक सुखों के प्रति कंटाला-उद्वेग... इसी प्रकार कर्मो के बंध के कारण स्वरुप मद्य आदि प्रमादों का त्याग यह अप्रमादभावना है... तथा एकाग्रभावना इस प्रकार है... जैसे कि- ज्ञान एवं दर्शन से युक्त ऐसा यह मेरा आत्मा शाश्वत-नित्य है... जब कि- शेष सभी शरीर आदि पदार्थ आत्मा से सर्वथा भिन्न है किंतु संयोग संबंध से आत्मा से जुड़े हुए हैं... इत्यादि जो भावनाएं हैं वे चारित्र-भावना कही गई है... अब तपोभावना कहतें हैं... नि. 343 कौन सी विगइ के त्याग से मेरा यह दिन तपश्चर्या वाला बना रहे ? अथवा कौन से तप को करने के लिये में समर्थ हुं ? तथा मेरा ऐसा वह कौन सा तप है और किन-किन द्रव्यादि में वह तपश्चर्या निर्दोष रुप से पूर्ण हो ? इत्यादि प्रकार से तपोभावना चिंतन करना चाहिये... जैसे कि-द्रव्य से- वाल-चने आदि द्रव्य...