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________________ 2-1-3-3-2 (462) 293 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका गामाणुगाम दुइज्जिज्जा || 462 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा आचार्योपाध्याय० ग्रामा० न आचार्योपाध्यायानां हस्तेन वा हस्तं यावत् अनाशायतन्, तत: संयतः एव आचार्योपा० सार्द्ध यावत् गच्छेत् / सः भिक्षुः वा आचा० सार्द्ध गच्छन् अन्तरा तस्य प्रातिपथिकाः उपागच्छेयुः, ते प्रातिपथिकाः एवं वदेयुः हे आयुष्मन् ! श्रमण ! के यूयं ? कुत: वा आगच्छत ? कुत्र वा गमिष्यथ ? यः तत्र आचार्यः वा उपाध्यायः वा सः भाषेत वा व्याकुर्यात् वा, आचार्योपाध्यायस्य भाषमाणस्य वा व्याकुर्वाणस्य वा न अन्तरा भाषां कुर्यात्, तत: सं० यथारात्निक: वा० गच्छेत् / सः भिक्षुः वा यथारात्निकं ग्रामा० गच्छन्तं न रात्निकस्य हस्तेन हस्तं यावत् अनाशायतन्, ततः सं० यथारात्निकं ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / सः भिक्षुः वा यथारान्तिकं ग्रामानुग्राम गच्छन् अन्तरा तस्य प्रातिपथिका: उपागच्छेयुः, ते प्रातिपथिका: एवं वदेयु:- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! के यूयं ? यः तत्र सर्वरात्निकः, सः भाषेत वा व्याकुर्यात् वा, रात्निकस्य भाषमाणस्य वा व्याकुर्वाणस्य वा न अन्तरा भाषां भाषेत, तत: संयतः एव यथारात्निकेन ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 462 / / III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी आचार्य और उपाध्याय के साथ विहार करता हुआ, आचार्य और उपाध्याय के हाथ से अपने हाथ का स्पर्श न करे, और आशातना न करता हुआ ईयर्यासमिति . पूर्वक उनके साथ विहार करे। उनके साथ विहार करते हुए मार्ग में यदि कोई व्यक्ति मिले और वह इस प्रकार कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! आप कौन हैं ? कहां से आये हैं ? और कहां जाएंगे ? तो आचार्य या उपाध्याय जो भी साथ में है वे उसे सामान्य अथवा विशेष रूप से उत्तर देवे। परन्तु, साधु को उनके बीच में नहीं बोलना चाहिए। किन्तु, ईर्यासमिति का ध्यान रखता हुआ उनके साथ विहार चर्या में प्रवृत्त रहे। और यदि कभी साधु रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े साधु) के साथ विहार करता हो तो उस रत्नाधिक के हाथ से अपने हाथ का स्पर्श न करे ओर यदि मार्ग में कोई पथिक सामने मिले और पूछे कि आयुष्मन् श्रमणो ! तुम कौन हो ? तब वहां पर जो सबसे बड़ा साधु हो वह उत्तर देवे उसके संभाषण में अर्थात् उत्तर देने के समय उसके बीच में अन्य कोई साधु न बोले किन्तु यत्नापूर्वक रत्नाधिक के साथ विहार में प्रवृत्त रहे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु आचार्यादि के साथ जाता हुआ इतनी दूरी से चले कि- आचार्यादि के हाथ
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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