________________ 292 2-1-3-3-2 (462) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि- सूत्रकार ने दर्शनीय स्थलों को इस तरह से देखने के लिए इन्कार किया है, जिससे किसी के मन में साधु के प्रति सन्देह उत्पन्न होता हो या उसके मन में विकारी भाव जागृत होता हो। परन्तु, इसका अर्थ यह नहीं है कि साधु उस तरफ से निकलते हुए आंखों को मूंद कर चले। साधु अपनी गति से चलता है और आंखों के सामने आने वाले दृश्य उसके सामने आएं तो वह आंखें बन्द नहीं करेगा, परन्तु उस तरफ विशेष गौर से न देखता हुआ स्वाभाविक गति से अपना विचरण करेगा। . __इस सूत्र से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय के राजा गांव या शहर के बाहर जङ्गल में गायों एवं घोड़े आदि पशुओं के चरने के लिए कुछ गोचर भूमि या चरागाह छोड़ते थे, जिन पर किसी तरह का कर नहीं लिया जाता था। इससे यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि उस समय पशुओं के चारा-पानी और रक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। इसके अतिरिक्त खेत, जलाशय, गुफाओं आदि का उल्लेख करके उस युग की वास्तु कला एवं संस्कृति पर विशेष प्रकाश डाला गया है। यदि साधु को आचार्य एवं उपाध्याय आदि के साथ विहार करना हो तो उन्हें किस तरह चलना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 42 // . से भिक्खू वा आयरिउवज्झा० गामा० नो आयरिय-उवज्झायस्स हत्थेण वा हत्थं जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव आयरिउ० सद्धिं जाव दूइज्जिज्जा / से भिक्खू वा आय० सद्धिं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडि0 एवं वइज्जा- आउसंतो ! समणा ! के तुब्भे ? कओ वा एह ? कहिं का गच्छिहिह ? जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से भासिज्ज वा वियागरिज्ज वा आयरिउवज्झायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं करिज्जा, तओ सं० अहाराईणिए वा० दूइज्जिज्जा। ‘से भिक्खू वा० अहाराइणियं गामाणुगामं दूइज्जमाणे नो राइणियस्स हत्थेण हत्थं जाव अणासायमाणे, तओ सं० अहाराइणियं गामा० दू०। से भिक्खू वा, अहाराइणियं गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वइज्जा- आउसंतो ! समाणा ! के तुब्भे ? जे तत्थ सव्वराइणिए से भासिज्ज वा वागरिज्ज वा, राइणियरस भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा, तओ संजयामेव अहाराइणियाए