________________ 492 2-3-19/22 (527/530) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संस्कृत-छाया : पूर्वं उत्क्षिप्ता मानुषैः संहृष्ट रोमकूपैः / पथात् वहन्ति देवा सुरासुराः गरुडनागेन्द्राः // 526 // सूत्र // 19 // // 527 // पुरओ सुरा वहंति असुरा पुण दाहिणंमि पासंमि। अवरा वहंति गरुला नागा पुण उत्तरे पासे || 527 // I संस्कृत-छाया : पुरतः सुराः वहन्ति असुराः पुनः दक्षिणे पार्थे / अपरत: वहन्ति गरुडा: नागाः पुनः उत्तरे पार्धे // 527 / / सूत्र // 20 // // 528 // वणखंडं व कुसुमियं पउमसरो वा जहा सरयकाले। सोहइ कुसुमभरेणं इय गयणयलं सुरगणेहिं / / 528 // संस्कृत-छाया : वनखण्डं इव कुसुमितं पद्मसरः वा यथा शरत्काले शोभते कुसुमभरेण इति गगनतलं सुरगणैः // 528 // I सूत्र // 21 // // 529 // सिद्धत्थवणं व जहा कणयारवणं व चंपयवणं वा। सोहइ कुसुमभरेणं इय गयणयलं सुरगणेहिं // 529 // संस्कृत-छाया : सिद्धार्थवनं वा यथा कर्णिकारवनं वा चम्पकवनं वा। शोभते कुसुमभरेण इति गगनतलं सुरगणैः // 529 // सूत्र // 22 // // 530 // वरपडहभेरिझल्लरि संख सयसहस्सिएहिं तूरेहिं। गयणयले धरणियले तूरनिनाओ परमरम्मो || 530 / / II