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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-13 (418) 207 मकान में ठहरता है तो उसे महावर्ण्य क्रिया कैसे लगती है ? इसका समाधान यह है कि श्रमण शब्द का प्रयोग निर्ग्रन्थ के लिए भी होता है। आगम में बताया गया है- 1. निर्ग्रन्थ (जैन साधु), 2. बौद्ध भिक्षु, 3. तापस, 4. गैरिक (संन्यासी) और 5. आजीवक (गौशालक मत के साधु) आदि 5 सम्प्रदायों के साधुओं के लिए श्रमण शब्द का प्रयोग होता रहा है। अतः श्रमण शब्द से जैन साधु का ग्रहण किया गया है, क्योंकि बौद्ध भिक्षुओं आदि के लिए भिक्षु शब्द का भी प्रयोग किया गया है। अतः जिस मकान को बनाने में जेन साधु का लक्ष्य रखा गया हो उस मकान के पुरुषान्तर होने पर भी जैन साधु को उसमें नहीं ठहरना चाहिए। यदि वह उसमें ठहरता है तो उसे महावर्ण्य क्रिया (दोष) लगती है। अब सावद्य क्रिया को अभिव्यक्त करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। I सूत्र // 13 // // 418 // इह खलु पाईणं वा, संतेगइया जाव तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण-अतिहिकिवणवणीमगे पगणिय समुद्दिस्स तत्थ अगाराइं चेइयाइं भवंति तं० आएसगाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराणि आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति, इयराइयरेहिं पाहुडेहिं, अयमाउसो! आवज्जकिरिया यावि भव // 7 // // 418 // // संस्कृत-छाया : ____ इह खलु प्राच्यादिषु वा सन्ति एके यावत् तं श्रद्दधानः तं प्रतीयमानैः तं रोचमानैः बहून् श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-वनीपकान् गणयित्वा, समुद्दिश्य तत्र तत्र अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथा-आदेशनानि वा यावत् भवनगृहाणि वा, ये भगवन्तः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत् भवनगृहाणि वा उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु, इयं आयुष्मन् ! सावधक्रिया च अपि भवति // 7 // // 498 // III सूत्रार्थ : इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में बहुत से ऐसे श्रद्धालू गृहस्थ हैं जो उपाश्रय दान के फल पर श्रद्धा करने से प्रीति करने से और रुचि करने से बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारियों का उद्देश्य रखकर लोहकार शालादि भवनों का निर्माण करते हैं जो मुनिराज तथाप्रकार के भेंटस्वरुप दिए गए छोटे बड़े भवनों में ठहरतें हैं, तो हे आयुष्मन् शिष्य ! उनके लिए यह सावध क्रिया होती है।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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