________________ 208 2-1-2-2-14 (419) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु पांच प्रकार के श्रमणादि के लिये बनाइ हुइ यह वसति (उपाश्रय) सावधक्रिया नाम के दोषवाली है, अतः ऐसी वसति में स्थान, शय्या, निषधादि करनेवाले साधु को सावधक्रिया नाम का दोष लगता है, इसलिये ऐसी वसति साधुओं को अकल्पनीय है... तो भी विशुद्धकोटि है... पांच प्रकार के श्रमण इस प्रकार हैं... 1. निर्यथ, 2. शाक्य 3. तापस, 4. गेरुक, 5. आजीवश्रमण... अब महासावधाभिधान वसति का स्वरुप कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भी पूर्व सूत्र की बात को दुहराया गया है। इसमें यह बताया गया है कि यदि श्रमण, भिक्षु आदि को लक्ष्य में रखकर किसी मकान में सावध क्रिया की गई हो तो साधु को उसमें नहीं ठहरना चाहिए। यदि कोई साधु उसमें ठहरता है तो उसे सावध क्रिया लगती है। अब महासावध क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं.. सूत्र // 14 // // 419 // इह खलु पाईणं वा, जाव तं रोयमाणेहिं एगं समणजायं समुद्दिस्स तत्थ, अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति, तं० आएसणाणि जाव गिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव महया तसकायसमारंभेणं महया विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चेहिं, तं जहा- छायणओ लेवणओ संथारदुवार पिहणओ सीओदए वा परट्टवियपुव्वे भवइ, अगणिकाए वा उज्जालियपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तह० आएसणाणि वा० उवागच्छंति, इयरा-इयरेहिं पाहुडेहिं दुपक्खं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! महासावज्जकिरिया यावि भवइ / / 8 // // 419 / / II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा, यावत् तं रोचमानैः एकं श्रमणजातं समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथा-आदेशनानि यावत् गृहाणि वा महता पृथिवीकायसमारम्भेण यावत् महता प्रसकाय समारम्भेण महता विरूपरूपैः पापकर्मकृत्यैः, तद्यथा- छादनतः लेपनत: संस्तार-द्वारपिधानार्थं शीतोदकं वा त्यक्तपूर्व भवति, ये भगवन्तः तथा० आदेशनानि वा0 उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु द्विपक्षं ते कर्म सेवन्ते, इयं आयुष्मन ! महासावधक्रिया च अपि भवति / / 8 / / / / 419 //