________________ 136 2-1-1-9-5 (387) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 5 // // 387 // . से भिक्खू वा अन्नयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुप्फं, आविइत्ता कसायं परिहवेइ, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा। पुप्फ पुप्फेड वा कसायं कसायेइ वा सव्वमेव भुंजिज्जा, नो किंचिवि परि० // 383 / / II संस्कृत-छाया : ___स: भिक्षुः वा अन्यतरत् पानकजातं परिगृह्य पुष्पं आपीय, कषायं परित्यजेत् मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् ! पुष्पं पुष्पितं वा कषायं कषायितं वा सर्वमेव भुञ्जीत, न किचिदपि परि० / / 387 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में जाने पर यदि कोई साधु या साध्वी जल को ग्रहण करके उसमें से वर्ण गन्ध युक्त जल को पीकर कषायले पानी को फेंक देता है तो उसे मातृस्थान-कपट का स्पर्श होता है। अतः वह ऐसा न करे, किन्तु वर्ण, गन्ध युक्त या वर्ण, गन्ध रहित जैसा भी जल उपलब्ध हो उसे समभाव पूर्वक पी ले, परन्तु उसमें से थोड़ा सा भी न फैंके। IV टीका-अनुवाद : इसी प्रकार पानकसूत्र भी... किंतु पुष्पं याने अच्छे वर्ण-गंधवाले, और इससे विपरीत कषाय... यहां जल के विषय में भी पूर्व के दो सूत्र में कहे गये दोषों की संभावना है तथा आहारादि की आसक्ति से सूत्र एवं अर्थ ग्रहण करने में हानि होती है और कर्मबंध भी होता है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कभी खट्टा या कषायला पानी आ गया हो तो मुनि उसे फैंके नहीं। मधुर पानी के साथ उस पानी को भी पी ले / आहार की तरह पानी पीने में भी साधु अनासक्त भाव का त्याग न करे। दशवैकालिक सूत्र में भी इस सम्बन्ध में बताया गया है कि मधुर या खट्टा जैसा भी प्रासुक पानी आ जाए, साधु को बिना खेद के उसे पी लेना चाहिए। अब फिर से आहार के विषय का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं...