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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-1-1-9-4 (386) 135 - I सूत्र // 4 // // 386 / / से भिक्खू वा, अण्णयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता सुब्भिं सुब्भिं भुच्चा, दुब्भिं दुब्धि परिद्ववेड, माइट्टाणं संफासे, नो एवं करिज्जा। सुब्भिं वा दुन्भिं वा सव्वं भुंजिज्जा, नो किंचिवि परिविज्जा || 386 // II संस्कृत-छाया : ___स: भिक्षुः वा, अन्यतरत् भोजनजातं परिगृह्य सुरभि सुरभि भुक्त्वा , दुर्गन्धं दुर्गन्धं परित्यजेत् मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / सुरभि वा दुर्गन्धं वा सर्व भुञ्जीत, न किचिदपि परित्यजेत् // 386 // III सूत्रार्थ : ___गृहस्थ के घर में जाने पर कोई साधु या साध्वी वहां से भोजन लेकर, उसमें से अच्छाअच्छा खाकर शेष आहार को बाहर फेंक दे तो उसे मातृस्थान (माया) का स्पर्श होता है। इसलिए उसे ऐसा नहीं करना चाहिए, सुगन्धित या दुर्गन्धित जैसा भी आहार मिला है, साधु उसे समभाव पूर्वक खा ले, किन्तु उसमें से किचिन्मात्र भी फैंके नहीं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. कोइ भी प्रकार के आहारादि प्राप्त करके सुगंधी (अच्छे अच्छे) वापरकर दुर्गंधी याने नीरस आहारादि को फेंक न दे... ऐसा करने से माया-स्थान का स्पर्श होता है, अतः साधु ऐसा न करें... किंतु प्रासुक एवं एषणीय जो भी सुगंधी या दुर्गंधी आहारादि प्राप्त हुए हो, उन सभी आहारादि को वापरें... फेंक न दें... || V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को रस (स्वाद) की आसक्ति के वश लाए हुए आहार में से अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट पदार्थ को ग्रहण करके, शेष अस्वादिष्ट पदार्थों को फैंक नहीं देना चाहिए। सरस एवं नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हुआ है, उसे अनासक्त एवं समभाव पूर्वक खा लेना चाहिए। क्योंकि साधु का आहार स्वाद के लिए नहीं, संयम का परिपालन करने के लिए होता है। अतः उसे लाए हुए आहार में स्वाद की दृष्टि से अच्छे-बुरे का भेद करके नहीं, बल्कि समभाव पूर्वक, बिना स्वाद लिए खा लेना चाहिए। अब पानी के विषय में वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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