________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-6 (388) 137 I सूत्र // 6 // // 388 // से भिक्खू वा बहुपरियावण्णं भोयणजायं पडिगाहित्ता बहवे साहम्मिया तत्थ वसंति, संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया, तेसिं अनालोइया अणामंते परिद्ववेड, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा, गच्छिऊण से पुव्वामेव आलोइज्जा, आउसंतो समणा ! इमे मे असणे वा पाणे वा बहुपरियावण्णे, तं भुंजह णं, सेवं वयंतं परो वइज्जा - आउसंतो समणा ! आहारमेयं असणं वा जावइयं सरह तावइयं भुक्खामो वा पाहामो वा, सव्वमेयं परिसडइ, सव्वमेयं भुक्खामो वा पाहामो वा // 388 // . II संस्कृत-छाया : ___ सः भिक्षुः वा बहुपर्यापन्नं आहारजातं परिगृह्य, बहवः साधर्मिका: तत्र वसन्ति, साम्भोगिकाः समनोज्ञाः अपरिहारिकाः अदूरगताः तेषां अनापृच्छ्य अनामन्य, परित्यजति, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / सः तत् आदाय तत्र गच्छेत्, गत्वा च सः पूर्वमेव आलोकयेत्। - हे आयुष्मन् श्रमण ! इदं मम अशनं वा बहुपर्यापन्नं, तत् भु वम्, सः तं एवं वदन्तं पर: वदेत् - हे आयुष्मन् श्रमण ! आहारं एतत् अशनं वा, यावन्मात्र, परिशटति, तावन्मानं भोक्ष्यामहे वा पास्यामः वा, सर्वमेतत् परिशटति, सर्वमेतत् भोक्ष्यामहे वा पास्यामः वा || 388 / / III. . सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी गृहपति कुल में प्रवेश करने पर गृहस्थ के घर से बहुत सा अशनादिक आहार प्राप्त होने पर ग्रहण करके अपने स्थान पर आए। यदि वह आहार उससे खाया न गया हो तो वहां पर जो अन्य स्वधर्मी साधु रह रहे हों, जो सांभोगिक तथा समान आचार वाले हैं, और जो अपने उपाश्रय के समीप भी हैं, उनको बिना पूछे, बिना निमन्त्रित किए यदि उस शेष आहार को परठ-फेंक देता है तो उसे मातृस्थान का स्पर्श होता है, अर्थात् माया का दोष लगता है। इस लिए वह ऐसा न करे, किन्तु वह भिक्षु उस आहार को लेकर वहां जावे और जाकर सर्वप्रथम उस आहार को दिखाए और दिखाकर इस प्रकार कहे-कि हे भाग्यशाली श्रमण ! यह अशनादिक चतुर्विध अहार मेरे खाने से बहुत अधिक है अतः आप इसे लीजिये वापरियेगा... इस प्रकार कहने पर किसी भिक्षु ने कहा-हे आयुष्मन् श्रमण! यह आहार हम जितना खा सकेंगे उतना खाने का प्रयत्न करेंगे। यदि हम पूरा आहार-पानी खापी सके तो सब खा-पी लेंगे।