________________ 138 2-1-1-9-6 (388) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आचार्य, ग्लान, प्राधूर्णक आदि के लिये बहोत प्रकार के आहारादि प्राप्त करने के बाद, वह आहारादि बहोत होने के कारण से यदि वापरने में असमर्थ हो तब वहां उस गांव में अन्य जो साधर्मिक सांभोगिक समनोज्ञ अपरिहारिक साधुजन हो या बहोत दूर न गये हो तब उनके पुछे विना हि प्रमादी होकर यदि साध उन आहारादि का त्याग करे तब वह साधु माया-स्थान का स्पर्श करता है, किंतु साधु को ऐसा नहि करना चाहिये... इस स्थिति में वह साधु क्या करे, यह बात अब कहतें हैं, कि- वह साधु उस बचे हुए आहारादि को लेकर उन साधुओं के पास जावे, और वहां जाकर बचा हुआ आहारादि उनको दिखलावे और कहे कि- "हे आयुष्मन् श्रमण ! यह आहारादि अधिक है, कि- जिसको मैं वापर नहि शकता, अतः आप कुछ आहारादि लीजीये..." ऐसा कहने पर वे साधजन कहे किजितना आहारादि हम वापर शकेंगे उतना ग्रहण करेंगे, अथवा तो यदि सभी आहारादि हम वापर शकेंगे तो सब कुछ आहारादि वापरेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि साधु रोगी एवं बीमार आदि के लिए पर्याप्त आहार लेकर आए और वह आहार खाने के बाद कुछ बच गया है, तो साधु अपने शहर में या समीपस्थ गांव आदि में स्थित सांभोगिक साधुओं को उस आहार को खाने के लिए प्रार्थना करे, किन्तु दिखाए बिना परठे (फैंके) नहीं। यदि वह समीपस्थ स्थान में स्थित साधुओं को दिखाए बिना उस बढ़े हुए आहार को बाहर फेंकता है, तो वह प्रायश्चित का अधिकारी होता है। अतः साधु का कर्तव्य है कि वह अपने निकट प्रदेश में स्थित सहधर्मी एवं सांभोगिक साधुओं के पास जाकर उन्हें प्रार्थना करे कि हमारे खाने के बाद कुछ आहार बढ़ा है, अतः आप इसे ग्रहण करने की कृपा करें। और आप थोड़ा या पूरा जितना भी खा सकें, खाने का प्रयत्न करें। इससे स्पष्ट होता है कि बढ़ा हुआ आहार समान धर्मी, समान आचार-विचार वाले या सांभोगिक साधु को ही देने का विधान है। दूसरी बात यह है कि उस युग में बड़े-बड़े शहर होते थे. अतः एक ही शहर में कई स्थानों पर साधु आकर ठहर जाते थे। या थोड़ी-थोड़ी दूर पर गांव होते थे, जिनमें साधु ठहरा करते थे और वे गांव आहार-पानी लाने-ले जाने की मर्यादा में होते थे। तीसरी बात यह है कि साधु की भाषा निश्छल एवं स्पष्ट होती है। वह अन्य साधु के पास जाकर ऐसा नहीं कहता कि में आपके लिए अच्छा आहार लेकर आया हूं। वह तो स्पष्ट कहता है कि मैं अपने या अपने साथ के साधुओं के लिए आहार लाया या, उसमें से इतना आहार बढ़ गया है। अतः कृपा करके इसे ग्रहण करें और लेने वाले साधु भी बिना