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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-7 (389) 139 किसी भेदभाव के स्नेह एवं सद्भावना के साथ तथा जीवों की यतना के लिए उसे ग्रहण करते हैं और उस आए हुए श्रमण से कहते हैं कि हम जितना खा सकेंगे उतना खाने का प्रयत्न करेंगे। इससे स्पष्ट होता है कि साधु जीवन कितना स्पष्ट, सरल एवं मधुर है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 389 // से भिक्खू वा से जं0 असणं वा परं समुद्दिस्स बहिया नीहडं जं परेहि असमणुण्णायं अनिसिढ़ अफा0 जाव नो पडिगाहिज्जा, जं परेहिं समणुण्णायं सम्म निसिहँ फासुयं जाव पडि गाहिज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं / / 389 // II संस्कृत-छाया : सः भितुः वा सः यत्० अशनं वा. परं समुद्दिश्य बहिः निष्क्रान्तं यत् परैः असमनुज्ञातं अनिसृष्टं अप्रासुकं० यावत् न प्रतिगृह्णीयात्, यत् परैः समनुज्ञातं सम्यग् निसृष्टं प्रासुकं यावत् प्रतिगृह्णीयात्, एवं खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुण्याः वा सामण्यम् / / 389 // III सूत्रार्थ : गृहस्थों के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी भाट आदि के निमित्त बनाया गया जो अशनादिक चतुर्विध आहार घर से देने के लिए निकाला गया है, परन्तु, गृहपति ने अभी तक उस आहार की उन्हें ले जाने के लिए नहीं कहा है, और उनके स्वाधीन नहीं किया है, ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति उस आहार के लिये साधु को विनति करे तो वह उसे अप्रासुक जानकर स्वीकार न करे। और यदि गृहपति आदि ने उन भाटादि को वह भोजन सम्यक् प्रकार से समर्पित कर दिया है और कह दिया है कि तुम जिसे चाहो दे सकते हो। ऐसी स्थिति में वह साधु को बिनती करे तो साधु उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। यही साधु या साध्वी का समय आचार. है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह आहारादि चार-भट्ट आदि के लिये घर से बाहार निकाला हुआ है, और उन गृहस्थों ने ऐसा कहा न हो कि- “आप किसी को भी दे दीजीयेगा...' तब देनेवाले एवं लेनेवालेने स्वामी-भाव से त्याग न कीया होने के कारण से बहुदोषवाले अप्रासुक एवं अनेषणीय उस आहारादि को साधु ग्रहण न करें... परंतु यदि इससे विपरीत याने देनेवाले गृहस्थ ने भी अनुमति दी हो तो साधु उन आहारादि को ग्रहण करें... और ऐसा करना यह हि उस साधु का साधुपना है...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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