________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-9 (549) 549 // 9 // // 549 // से हु परिणा-समयंमि वट्टइ निरासंसे उवरय मेहुणा चरे। भुयंगमे जुण्णतयं जहा चए . विमुच्चड़ से दुहसिज्ज माहणे // 549 // II संस्कृत-छाया : सः खलु परिज्ञासमये वर्तते निराशंसः उपरतः मैथुनात् चरेत् / भुजङ्गमः जीर्णत्वक् (कचुकं) यथा त्यजेत्, विमुञ्चति सः दुःखशच्चात: ब्राह्मणः // 549 // III सूत्रार्थ : जिस प्रकार सर्प अपनी जीर्ण त्वचा-कांचली को त्याग कर उससे पृथक् हो जाता है, उसी तरह महाव्रतों से युक्त, शास्त्रोक्त क्रियाओं का परिपालक, मैथुन से सर्वथा निवृत्त एवं इह लोक-परलोक के सुख की अभिलाषा से रहित मुनि नरकादि दुःख रुप शय्या से अर्थात् कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। IV टीका-अनुवाद : . मूल एवं उत्तर गुणों को धारण करनेवाला वह मुनि-साधु पिंडैषणा अध्ययन में कहे गये संयमानुष्ठान में उपयुक्त होकर जिनागमों के सूत्र एवं अर्थ को जानता है तथा आश्रव द्वारों का त्याग करके संवर मार्ग में आगे ही आगे बढता रहता है... वह साधु इसलोक के एवं परलोक के भौतिक फलों की आशंसा नही रखता... तथा मैथुनभाव याने कामक्रीडा का त्यागी तथा उपलक्षण से अन्य महाव्रत परिग्रहादि का भी त्यागी, ऐसा वह साधु नरकादि गति स्वरूप दुःखशय्या से मुक्त होता है... जिस प्रकार सर्प अपनी पुरानी त्वक् याने चमडी (कांचली) का त्याग करने निर्मल होता है... इसी प्रकार मुनि भी नरकादि भावों से मुक्त होता है... अब समुद्राधिकार का स्वरूप कहतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में सर्प का उदाहरण देकर बताया गया है कि जिस प्रकार सर्प अपनी त्वचा-कांचली का त्याग करने के बाद शीघ्रगामी एवं हल्का हो जाता है। उसी तरह साधक