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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-1 (398) 171 लिए सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित किया है तो इस प्रकार का उपाश्रय जब तक अपुरुषान्तरकृत या अनासेवित है, तब तक उस में नहीं ठहरना चाहिए, और यदि वह पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो गया हो तो उस का प्रतिलेखन करके उस में स्थानादि कार्य कर सकता है, अर्थात् कायोत्सर्ग, संथारा और स्वाध्याय आदि कर सकता है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. वसति याने उपाश्रय की एषणा करना चाहे, तो गांव आदि में प्रवेश करें, वहां प्रवेश करके साधु को रहने के लिये योग्य वसति-उपाश्रय की शोध करे... यदि वहां जीवजंतु के अंडेवाला उपाश्रय हो, तो वहां स्थानादि न करें स्थान याने खडे खडे कायोत्सर्ग... शय्या याने संस्तारक (संथारो) निषीधिका याने स्वाध्यायभूमि... इत्यादि न करें... यदि इससे विपरीत याने जीव-जंतु रहित उपाश्रय हो तो प्रतिलेखन करके स्थानादि करे। अब उपाश्रय के विषय में रहे हुए उद्गमादि दोषों को कहतें हैं... वह भाव-साधु जब जाने कि- यह उपाश्रय कीस श्रद्धावाले श्रावक (गृहस्थ) ने साधुओं के लिये त्रस एवं स्थावर जीवों को पीडा पहुंचाकर बनाया है... जैसे कि- जिनेश्वर ने कहे हुए धर्मानुष्ठान का आचरण करनेवाले किसी एक साध के लिये त्रस एवं स्थावर जीवों का मर्दन करके बनाया गय तथा उसी साधु के लिये मूल्य से खरीद करके, अन्य से उच्छीना मांगकर के, या नौकर चाकर आदि से बल पूर्वक झंटकर या मकान के स्वामी या मकान के स्वामी ने अनुमति न दी हो ऐसे. य तैयार हि खरीदा गया हो, इत्यादि प्रकार से यदि गृहस्थ साधु को उपाश्रय दे, तब तथाप्रकार के पुरुषांतरकृतादि उपाश्रय में साधु स्थानादि न करे... इसी प्रकार बहुवचनसूत्र याने अनेक साधुओं के लिये... इत्यादि जानीयेगा... इसी प्रकार साध्वीजी. म. के विषय में भी एकवचन एवं बहुवचन के विषय में भी स्वयं जानीयेगा... किंतु यह दोनों सूत्र पिंडैषणा के अनुसार जानीयेगा... सुगम होने के कारण से यहां पुनः नहि कहतें हैं... ____ तथा वह साधु यदि ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय असंयत (गृहस्थ) ने साधुओं के लिये बनाया है... वह इस प्रकार - काष्ठ (लकडी) आदि से दिवार... आदि बनाइ हो, वंश आदि की कंबा आदि से बांधा हो, दर्भ (तृण-घास) आदि से ढांका हो, गोमय (गोबर) आदि से लिंपा हो, खडी मिट्टी आदि से पोता हो, तथा लेपनिका आदि से समतल कीया हो, भूमिकर्मादि से संस्कारित कीया हो; दुर्गध को दूर करने के लिये धूप आदि से धूपित कीया हो, तो इस प्रकार के अन्य पुरुष ने स्वीकार नहि हुए एवं नहि वापरे हुए उपाश्रय (मकान) में साधु स्थानादि न करें... किंतु यदि अन्य पुरुष ने अपने आपके लिये ग्रहण कीया हो यावत् निवास किया हो तो प्रतिलेखन करके साधु स्थान, शय्या, निषद्यादि करे...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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