________________ 170 2-1-2-1-1 (398) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन बह-साधर्मिकान् एकां साधर्मिकां बहू: साधर्मिकाः / सः भिक्षुः वा० स: यत् पुन: उपा० बहून् श्रमण-वनीपकान् प्रगणय्य, समुद्दिश्य तच्चैव भणितव्यम् / सः भिक्षुः वा० सः यत् बहून् श्रमण उद्दिश्य प्राणिनः, यावत् चेतयति, तथाप्रकारे उपाश्रये अपुरुषान्तरकृते यावत् अनासेविते न स्थानं वा चेतयेत् / अथ पुनः एवं जानीयात्, पुरुषान्तरकृतं यावत् सेवितं, प्रतिलिख्य ततः संयत एव चेतयेत्। स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: असंयत: भिक्षुप्रतिज्ञया कटकित: वा उत्कम्बित: वा छन्न: वा लिप्त: वा घृष्टः वा मृष्टः वा संप्रधूपितः वा तथाप्रकारे उपाश्रये अपुरुषान्तरकृते यावत् अनासेविते न स्थानं वा शय्यां वा निषेधिकां वा घेतयेत् / अथ पुन: एवं जानीयात् पुरुषान्तरकृतः यावत् आसेवितः प्रतिलिख्य ततः चेतयेत् // 398 // III सूत्रार्थ : वह साधु वा साध्वी उपाश्रय की गवेषणा के लिए व्याम यावत् राजधानी में जाकर उपाश्रय को जाने जो उपाश्रय अण्डों से यावत् मकड़ी आदि के जालों से युक्त है तो उसमें वह कायोत्सर्ग संस्तारक (संथारा) और स्वाध्याय न करे। वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अण्डों और मकड़ी के जाले आदि से रहित जाने, उसे प्रतिलेखित और प्रमाजित करके उसमें कायोत्सर्गादि करे। जो उपाश्रय एक साधर्मी के उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वादिका समारम्भ करके, मोल लेकर, उधार लेकर, किसी निर्बल से छीन कर, यदि सर्व साधारण का है तो किसी एक की भी बिना आज्ञा लिए साधु को देता है तो इस प्रकार का उपाश्रय पुरुषान्तरकृत हो अथवा अपुरुषान्तरकृत, एवं सेवित हो या अनासेवित, उसमें साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे। इसी प्रकार जो बहुत से साधर्मियों के लिए बनाया गया हो तथा एक साधर्मिणी या बहुत सी साधर्मिणियों के लिए बनाया गया है उसमे भी स्थानादि कायोत्सर्गादि न करे। और जो उपाश्रय बहुत से श्रमणों तथा भिक्षुकों के लिए बनाया गया हो उसमें भी स्थान आदि न करे। _____ जो उपाश्रय शाक्यादि भिक्षुओं के निमित्त षट्काय का समारम्भ करके बनाया गया है, जब तक वह अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित है तब तक उसमें स्थानादि-कायोत्सर्गादि न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत या आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन करके यत्नापूर्वक वहां स्थानादि कार्य कर सकता है। जो उपाश्रय गृहस्थ ने साधु के लिए बनाया हुआ है उसका काष्ठादि से संस्कार किया है, बांस आदि से बान्धा है तृणादि से आच्छादित किया है गोबरादि से लिंपा है; सवारा है तथा ऊंची नीची भूमि को समतल बनाया है, सुकोमल बनाया है और दुर्गन्धादि को दूर करने के