________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-10 (415) 203 वणीमए समुद्दिस्स तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाई भवंति, तं० आएसणाणि वा जाव - भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्प० आएसणाणि जाव गिहाणि वा तेहिं आणोवयमाणेहिं उवयंति, अयमाउसो ! अणभिक्कंतकिरिया यावि भवइ // 4 // // 415 // II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा, यावत् रोचमानैः बहून् श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपणवनीपकान् समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथाआदेशनानि वा यावत् भवनगृहाणि वा, ये भगवन्तः तथाप्र० आदेशनानि यावत् गृहाणि वा, ते: अनुपयद्भिः उपयन्ति, इयं आयुष्मन् ! अनभिक्रान्तक्रि या च अपि भवति / / 4 / / / / 415 // III सूत्रार्थ : हे आयुष्मन् शिष्य ! संसार में बहुत से श्रद्धालु गृहस्थ ऐसे हैं जो साधु के आचार विचार को नहीं जानते हैं, परन्तु वसती दान के स्वर्गादि फल को जानते हैं। उन लोगों ने उक्त स्वर्ग के फल पर श्रद्धा और अभिरुचि करते हुए शाक्यादि श्रमणों का उद्देश्य करके लोहकार शाला यावत् तलघर आदि बनाए हैं। यदि ये लोहकार शाला यावत् तलघर आदि स्थान, गृहस्थों ने तथा शाक्यादि श्रमणों ने अपने उपभोग में नहीं लिए हैं, अर्थात् बनने के बाद वे खाली ही पड़े रहे हैं। ऐसे स्थानों में यदि जैन साधु ठहरते हैं तो उन्हें अनभिक्रान्त क्रिया लगती है। IV टीका-अनुवाद : सुगम है... किंतु चरक आदि श्रमणों से वह वसति पूर्व काल में सेवित नहि होने के कारण से वह वसति अनभिक्रांतक्रिया स्वरुप दोषवाली है, अतः अनभिक्रांत के कारण से साधुओं को वह वसति (उपाश्रय) अकल्पनीय है... 4... || 415 // v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में पूर्व सूत्र में अभिव्यक्त की गई बात को दुहराते हुए कहा गया है कि यदि किसी श्रद्धालु गृहस्थ द्वारा शाक्य आदि श्रमणों के लिये एवं अपने उपभोग के लिए बनाए गए स्थानों में वे अन्यमत के श्रमण एवं गृहस्थ ठहरे नहीं हो, उन्होंने उस मकान को अपने उपभोग में नहीं लिया है, तो जैन साधु को वहां नहीं ठहरना चाहिए। इसमें आरम्भ आदि के दोष की दृष्टि के अतिरिक्त एक कारण यह भी है कि यदि कालान्तर में उस मकान में कोई उपद्रव हो गया या उससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ तो लोगों में यह अपवाद फैल सकता है कि इसमें सबसे पहले जैनमुनि ठहरे थे। अतः इस तरह की भ्रान्ति न फैले इस दृष्टि से