________________ 204 2-1-2-2-11 (416) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी साधु को पुरुषान्तरकृत अपरिभुक्त मकान में ही ठहरना चाहिए। अब वाभिधान क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 11 // // 416 // इह खलु पाईणं वा, जाव कम्मकरीओ वा तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं भयंताराणं कप्पड़ अहाकम्मिए उवस्सए वत्थए, से जाणिमाणि अम्हं अप्पणो सयट्ठाए चेइयाई भवंति, तं० आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा, सव्वाणि ताणि समणाणं निसिरामो, अवियाइं वयं पच्छा अप्पणो सयट्ठाए चेइस्सामो, तं० आएसणाणि जाव एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्प० आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, इयरा-इयरेहिं पाहडे हिं वटुंति, अयमाउसो ! वज्जकिरिया वि भवड़॥ 5 // // 416 // II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा, यावत् कर्मकर्यः वा तेषां च एवं उक्तपूर्वं भवति, ये इमे भवन्ति श्रमणा: भगवन्तः यावत् उपरता: मैथुन-धर्मात्, न खलु एतेभ्यः भगवद्भ्यः कल्पते आधाकर्मिक: उपाश्रयः वसितुम्, सः यानि इमानि अस्माकं आत्मनः स्वार्थाय चेतितानि भवन्ति, तद्यथा आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा सर्वाणि तानि श्रमणेभ्य: नि:सरामः, वयं पश्चात् आत्मनः स्वार्थाय चेतयिष्यामः, तद्यथा-आदेशनानि वा यावत् एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य ये भगवन्तः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु वर्तन्ते, इयं आयष्मन् ! वयक्रिया च अपि भवति // 5 // // 416 // III सूत्रार्थ : संसार में पूर्वादि दिशाओं में बहुत से ऐसे श्रद्धालु गृहस्थ यावत् दास दासी आदि व्यक्ति हैं, वे परस्पर बातचीत करते हुए कहते हैं कि- ये पूजनीय जैन साधु मैथुन धर्म से सर्वथा उपरत हैं एवं सावध क्रियाओं से विरक्त हैं। अतः इन्हें आधाकर्मिक- आधाकर्म दोष से दूषित उपाश्रय में बसना नहीं कल्पता है। हमने अपने लिए जो लोहकार शाला आदि मकान बनाए हैं, वे सब इन श्रमणों को दे देते हैं। और हम अपने लिए दूसरे नए लोहकार शाला आदि मकान बना लेगें। गृहस्थों के उक्त निर्घोष को सुनकर तथा समझ कर भी जो मुनि-साधु तथाप्रकार के छोटे-बड़े लोहकार शाला आदि, गृहस्थों द्वारा, दिए गए स्थानों में उतरते हैं तो हे आयुष्मन्