________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-12 (417) 205 शिष्य ! उन्हें वयक्रिया लगती है। अर्थात् जो साधु ऐसे स्थानों में ठहरता हैं उसे वयक्रिया का दोष लगता है। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु सारांश यहा है कि- साधुओं के आचार से अनजान गृहस्थों ने अपने खुद के लिये बनाये हुए घर साधुओं को निवास के लिये देकर अपने लिये अन्य बनावे, तब ऐसे अन्य अन्य छोटे-बड़े घर में यदि साधु निवास करे, तो वह वसति वज्याभिधान दोषवाली होने के कारण से साधुओं को वज्याभिधान दोष लगता है, अतः ऐसी वसति साधुओं के लिये अकल्पनीय है... अब महावाभिधान वसति का स्वरुप कहतें है... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जो श्रद्धालु गृहस्थ साध्वाचार से अपरिचित हैं, वे अपने अपने परिजनों को बताते हैं कि हम अपने लिए बनाए हुए मकान इन्हें ठहरने को दे देते हैं। अपने रहने के लिए दूसरा मकान बना लेंगे। इस तरह के विचारों को सुनकर साधु को उस मकान में नहीं ठहरना चाहिए। यदि यह जानने के पश्चात् भी वह उस मकान में ठहरता है तो उसे वयक्रिया लगती है। ___ स्थानांग सूत्र में 'वज्ज' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव सूरि ने लिखा है- 'वज्जंति-वय॑न्ते इति वय॑ः हिंसानृतादि पापं कर्म' अर्थात् 'वज की तरह भारी हिंसा, झूठ * ' आदि पापों को वर्ण्य कहते हैं। और तत्सम्बन्धी क्रिया वर्ण्य क्रिया कहते हैं।' इस अपेक्षा से 5 आश्रव वज्र या वर्ण्य है। अतः साधु के निमित्त आहार या उपाश्रय यदि बनाया गया हो और साधु उसे जानते हुए भी उसका उपभोग कर रहा हो तो उसे वर्ण्य दोष लगता है। अतः साधु को ऐसे मकान में ठहरना नहीं कल्पता। अब महावर्ण्य क्रिया का स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 12 // // 417 // इह खलु पाईणं वा संतेगइया सड्ढा भवंति, तेसिं च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण जाव वणीमगे पगणिय समुद्दिस्स तत्थ, अगारीहिं अगाराइं चेहयाई भवंति, तंo आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, इयरा-इयरेहिं पाहुडेहिं० अयमाउसो !