________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-1 (493) 395 उक्त स्थानों के स्वामी या अधिष्ठाता से याचना करते हुए कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! हम यहां पर ठहरने की आज्ञा चाहते हैं आप हमें जितने समय तक और जितने क्षेत्र में ठहरने की आज्ञा देंगे उतने समय और उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे। हमारे जितने भी साधर्मी साधु यहां आएंगे वे भी इसी नियम का अनुसरण करेंगे। तुम्हारे द्वारा नियत की गई अवधि के बाद विहार कर जाएंगे। उक्त स्थान में ठहरने के लिए गृहस्थ की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उस स्थान में प्रवेश करते समय यह ध्यान रखे कि यदि उन स्थानों में शाक्यादि श्रमण तथा ब्राह्मणों के छत्र यावत् चर्मछेदक आदि उपकरण पड़े हों तो वह उनको भीतर से बाहर न निकाले और बाहर से भीतर न रक्खे तथा सोये हुए किसी भी श्रमण आदि को जागृत न करे और उनके साथ किंचिन्मात्र भी अप्रीतिजनक कार्य न करे कि- जिस से उनके मन को आघात पहुंचे। . IV टीका-अनुवाद : - वह साधु या साध्वीजी म. आगन्तागारादि याने धर्मशाला आदि स्थान में कि- जहां अन्य ब्राह्मण-श्रमण आदि भी निवास करते हो, ऐसे सर्व सामान्य धर्मशालादि में कोई विशेष कारण होने पर यदि वहां कुछ समय रहने की आवश्यकता हो तब उस स्थान के स्वामी या रक्षक से पूर्व कही गइ विधि से अवग्रह की याचना करें... और वहां अवग्रह ग्रहण करने के बाद उस अवग्रह में यदि श्रमण या ब्राह्मण आदि के छत्र आदि उपकरण हो, एवं यदि वे उपकरण अंदर हो तो उन्हें बाहार न नीकालें, और यदि बाहार हो तो उनको अंदर न रखें... तथा सोये हुए श्रमण-ब्राह्मण आदि को जगावें भी नहि... और उनको मानसिक अप्रीति हो, मनःदुःख हो ऐसा कुछ भी न करें... यावत् उन श्रमण-ब्राह्मणो से प्रतिकूलता का त्याग करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि गृहस्थ की आज्ञा प्राप्त करके उसके मकान में ठहरते समय साधु को कोई ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए जिससे उस गृहस्थ या उसके मकान में ठहरे हुए अन्य शक्यादि मत के भिक्षुओं के मन को किसी तरह का आघात पहुंचे या उनके मन में साधु के प्रति दुर्भाव एवं अप्रीति पैदा हो। यदि उस मकान में पहले कोई श्रमण-ब्राह्मण ठहरे हुए हों और वहां उनके छत्र, चामर आदि उपकरण पड़े हों तो साधु उन उपकरणों को बाहर से भीतर या भीतर से बाहर न रखे और यदि वे सोये हुए हों तो साधु उन्हें जागृत न करे और उनके साथ किसी तरह का असभ्य एवं अशिष्ट व्यवहार न करे। क्योंकि साधु का जीवन स्व और पर के कल्याण के लिए है। वह अपने हित के साथ-साथ अन्य प्राणियों को भी सन्मार्ग दिखाकर उनकी आत्मा का हित करने का प्रयत्न करता है। अतः उसे प्रत्येक मानव एवं प्राणी के साथ बर्ताव करते समय अपनी साधुता को नहीं छोड़ना