________________ 396 2-1-7-2-2 (494) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चाहिए। उसकी साधुता प्रत्येक मानव एवं जीवजंतु के साथ- चाहे वह किसी भी देश, जाति एवं धर्म का क्यों न हो, आत्मीयता का, शिष्टता का एवं मधुरता का व्यवहार करने में हैं। इस लिए साधु को वसति-स्थान में ठहरते समय इस बात की ओर विशेष लक्ष्य रखना चाहिए कि अपने जीवन-व्यवहार से मकान मालिक एवं वहां स्थित या अन्य आने-जाने वाले श्रमणब्राह्मणादि व्यक्तियों के मन को किसी तरह का संक्लेश न पहुंचे। . यदि आम के बगीचे में ठहरे हुए साधु को आम आदि ग्रहण करना हो तो वह उन्हें कैसे ग्रहण करे, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 494 // से भिक्खू० अभिकंखिज्जा अंबवणं उवागच्छित्तए जे तत्थ ईसरे उग्गहं अणुजाणाविज्जा- कामं खलु जाव० विहरिस्सामो, से किं पुण० एवोग्गहियंसि अह भिक्खू इच्छिज्जा अंबं भुत्तए वा, से जं पुण अंबं जाणिज्जा सअंडं ससंताणं तह० अंबं अफा० नो पडिगिण्हिज्जा० / से भि0 से जं० अप्पंडं अप्पसंताणगं अतिरिच्छछिण्णं अव्वोच्छिण्णं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा / से भि0 से जं० अप्पंडं वा जाव असंताणगं तिरिच्छच्छिण्णं वुच्छिण्णं फा० पडि० / से भि० अंबभित्तगं वा अंबपेसियं वा अंबचोयगं वा अंब-सालगं वा अंबडालगं वा भत्तए वा पायए वा. से जं० अंबभित्तगं वा सअंडं अफा० नो पडिगिव्हिज्जा। से भिक्खू वा से जं0 अंबं वा अंबभित्तगं वा, अप्पंडं0 अतिरिच्छछिण्णं अफा० नो पडिगिव्हिज्जा। से जं० अंबडालगं वा अप्पंडं तिरिच्छछिण्णं वुच्छिण्णं फासुयं पडिगिहिज्जा। से भि० अभिकंखिज्जा उच्छुवणं उवागच्छित्तए, जे तत्थ ईसरे जाव उग्गहंसि / अह भिक्खू इच्छिज्जा उच्छु भुत्तए वा पायए वाo, से जं0 उच्छु जाणिज्जा सऊंडं जाव नो पडि० अतिरिच्छछिण्णं, तहेव तिरिच्छछिण्णे वि तहेव० / से भि० अभिकंखि० अंतरुच्छुयं वा जाव डालगं वा सअंडं० नो पडि०। . से भि० से जं0 अंतरुच्छुयं वा० अप्पंडं वा० जाव पडि० अतिरिच्छछिण्णं तहेव। से भि० ल्हसणवणं उवागच्छित्तए, तहेव तिण्णि वि आलावगा, नवरं लहसुणं / से भिo लहसुणं वा ल्हसुणकंदं वा ल्हसुणचोयगं वा ल्हसुणनालगं वा भुत्तए वा , से जं० लसुणं वा जाव लसुणबीयं वा सअंडं जाव नो पडि० / एवं अतिरिच्छछिण्णे वि, तिरिच्छछिण्णे जाव पडि० // 494 //